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अनेकान्त
[ वर्ष ।
कोटिका कवि, उत्कृष्टकोटिका वाग्मी तथा उत्कृष्ट कोटिका मिथ्या - भाषण - भूषणं परिहरेतौद्धत्यमुन्मुञ्चत, गमक बतलाया है। यथा- .
स्याद्वादं वदतानमेत विनयाद्वादीभकएठीरवं । कवित्वस्य परा सीमा वाग्मितस्य परं पदम् । नो चेत्तद्गुरुगर्जित-श्रुति-भय-भ्रान्ता स्थ यूयं यतगमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽर्च्यते न कैः॥ स्तूपर्ण निग्रहजीरार्णकूप-कुहरे वादि-द्विपाः पातिनः॥ ५५
(२) पार्श्वनाथचरितकार वादिराजसूरि (ई. १०२५) सकल-भुवनपालानम्रमूर्द्धावबद्धने भी पार्श्वनाथचरितमें 'वादिसिह'का समुल्लेख किया स्फुरित-मुकुट-चूडालीढ-पादारविन्दः। है और उन्हें स्याद्वादवाणीकी गर्जना करनेवाला (स्या- मदवदखिल -वादीभेन्द्र -कुम्भप्रभेदी, द्वादविजेता) तथा दिग्नाग और धर्मकीर्तिके अभिमान- गणभदजितसेना भाति वादीभसिंह ॥५७|| का चूर-चूर करनेवाला प्रकट किया है। यथा
-शिलालेख नं०५४ (६७) स्याद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते । (४) अष्टसहस्रीके टिप्पणकार लघुसमन्तभद्रने दिङ्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभङ्गो न दुर्घटः॥ भी अपने टिप्पणके प्रारम्भमें एक वादीभमिहका
(३) श्रवणवेलगोलाकी मल्लिपेरणप्रशस्ति (ई० उल्लेख निम्न प्रकार किया है११२८) मे एक वार्दीभमिहसूरि अपरनाम गणभृत् तदेवं महाभागैस्तार्किकारुपज्ञातां श्रीमता वादीभ(श्राचार्य) अजितसेनका गुणानुवाद किया गया है और सिंहनोपलालितामाप्तमीमासामलंचिकीर्षवः स्याद्वादोउन्हें स्याद्वादविद्याके पारगामियोंका आदरपूर्वक सतत भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकाघटमदेकटकाराः सूरयो वन्दनीय और लोगोंके भारी श्रान्तर तमको नाश विद्यानन्दस्वामिनस्तदादी प्रतिज्ञाश्लोकमकमाह-।' करनेके लिये पृथिवीपर पाया दुसरा सूर्य बतलाया
-अष्टसहस्त्री टि० पृष्ठ ५ । गया है । इसके अलावा, उन्हें अपनी गर्जनाद्वारा यहाँ लघुसमन्तभद्रने वादीभसिहको समन्तभद्रावादि-गजोको शीघ्र चूप करके निग्रहरूपी जीर्ण गमे चार्य रचित आप्तमीमामाका उपलालन (परिपाषण) पटकनेवाला तथा राजमान्य भी कहा गया है। यथा- कर्ता बतलाया है। यदि लघुसमन्तभद्रका यह उल्लख वन्दे वन्दितमादरादहरहस्स्याद्वादविद्या - विदां । अभ्रान्त है तो कहना होगा कि वादीभसिहने श्राप्तस्वान्त-ध्वान्त-वितान-धूनन-विधी भास्वन्तमन्यं भुवि ।। मीमांसापर कोई महत्वकी टीका लिखा है और उसके भक्त्या त्वाजितसेनमानतिकृतां यत्सन्नियोगान्मनः- द्वारा आप्तमीमांसाका उन्होंने परिपोपण किया है। पद्म सम भवेद्विकास-विभवस्योन्मुक्त-निद्रा-भरं ॥५४॥ श्री.पं. कैलाशचद्रजी शास्त्राने भी इसकी सम्भावनाकी १ इस श्लोकपरसे प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको कुछ भ्रम है' और उसमें आचार्य विद्यानन्दक 'अत्र शास्त्रपरिहुश्रा है। अतएव उन्होंने वादिसिहको दिग्नाग और समाप्ती केचिदिदं मङ्गलवचनमनुमन्यन्ते' शब्दाके साथ धर्मकीर्तिका समकालीन समझते हुए लिखा है कि
उद्धृत किये 'जयति जगति' आदि पद्यको प्रस्तुत किया
उद्धृत किय 'जयति जगात' 'वादिराजने इस श्लोकमे बौद्धाचार्य दिड नाग और
है। कोई आश्चर्य नहीं कि विद्यानन्दके पूर्व आप्तकीर्ति (धर्मकीर्ति) का ग्रहण करके वादिसिहको उनका
मीमांसापर लघुममन्तभद्रद्वारा उल्लिखित वादीभसिंहसमकालीन बतलाया है।' (न्याय कु. प्र. प्र. पृ. ११२)।
ने ही टीका रची हो और जिससे हो लधुसमन्तभद्रने पर वास्तवमे वादिराजने वादिसिहको उक्त बौद्धविद्वानोका।
उन्हें श्राप्तमीमांमाका उपलालनकर्ता कहा है और समकालीन नहीं बतलाया । उनके उक्त उल्लेखका
विद्यानन्दने केचित्' शब्दोंके साथ उन्हीकी टीकाके इतना ही अभिप्राय है कि दिग्नाग और धर्मकीर्तिको
उक्त 'जयति' आदि समाप्तिमङ्गलको अष्टसहस्रीके अपनी कृतियोपर जो अभिमान रहा होगा वह वादिसिंह
अन्तमें अपने तथा अकलङ्कादेवके समाप्तिमङ्गलके की गजना-स्यादादविद्यासे भरपूर अपनी (स्याद्वादसिद्धि
पहले उद्धृत किया है। जैसी) कृतियोंसे नष्ट कर दिया गया।
१ न्यायकु० प्र० भा० प्र० पृ० १११ ।