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________________ ३५६] अनेकान्त [ वर्ष ६ सिक्ख हैं। किन्तु दूसरे सरदारजी न माने और क्षुब्ध हो उठे और बोले-"सरदारजी, झूठ बोलते कड़ककर बोले-"तो क्या हम जैन साहबकी वजहसे शर्म आनी चाहिये, एक जैन मांस-अण्डे खानेकी शर्त हार जाएँ। ततैयोंने हमें काटा तो हमने भी इजाजत देगा यह नामुमकिन है। यह बात कहकर प्रतिज्ञा कर ली कि १०० ततैये मार कर ही दम जैन साहबका तुमने दिल दुखाया है. इसके लिये लेंगे। हममेंसे जो पहले १०० मार लेगा वही शत उनसे माफी माँगो।" जीतेगा। अगर जैन साहबको काट ले तो क्या यह नहीं मारेंगे? अगर ये न मारं तो हम भी मारना मियाँवाली जेलमें रहते हुए जब १५-२० रोज छोड़ सकते हैं।" होगये । तब एक राज़ तीसरा साथी मुहम्मद __अब मेरी बन आई । मैंने कहा-"जब मैं उनके शरीफ बोलामतानेकी भावना नहीं रतूंगा. तब वे मुझे हरगिज़ 'लालाजी. क्या आप मचमुच जैन है ?" नहीं काटेंगे । और यदि वह आपके धोखेमे मुझ "जी. इममे भी क्या शक है " काट भी लें तब भी मै उन्हें नहीं मारूँगा। अगर "मुझे तो यकीन नहीं आता. कि आप जैन हैं, मारूं तो तुम फिर ततैय मारनेमे स्वतन्त्र रहोगे। फिर आप तो बहुत अच्छ इन्सान मालूम होत है।" तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।" श्राश्चयकी बात यह हुई कि "तो क्या जैन इन्सान नहीं होत" मक्खियोंकी तरह अधिक संख्यामे उड़ने वाले उन "खुदा-कसम पाधाजी (एक बन्दी जो रिहा हो ततैयोने मुझे नहीं काटा और मेरी पत रख ली, इम गये थे) अक्सर कहा करते थे. जेनियांकी परछाँहासे बातका उन मरदारजीपर बड़ा असर हुआ किन्तु बचना. यह इन्मानका खून चूस लेते हैं । मै तो दुख है कि अधिक गर्मी बर्दाश्त न होनेके कारण खयाल करता था कि यह लोग बनमानुपकी किस्मक १०-१५ गेजमें ही उन्हें उन्माद हो गया और हमसे लोग होत होग और इन्हें किमी अजायबघरमे पृथक कर दिय गय। दग्धूंगा। मगर जब आप यहाँ तशरीफ लाये और राजनैतिक बन्दियोके विचारोकी थाह लेनेके लिये मालूम हुआ कि श्राप जैन है तो मै फौरन घबग जेलमें मी. आई.डी. के आदमी भी सत्याग्रह आन्दो- कर कमसे बाहर आगया था। और आपने महसूम लनमे मजा लेकर आजाते थे। यह लोग कितना किया होगा कि ४-५ गज़ मै आपसे बचा-बचामा गहरा काटते है यह तो किसी और प्रमङमें लिखा रहता था। आपके माम आपकी तारीफ सुनकर जायगा । यहाँ तो केवल इतना लिखना है कि एक यकीन नहीं पाया था। जब आपको इतने नजदीकसे से छद्मवेषी सज्जन हमारे पास और भेज दिय देखा है तब भरम दूर हुआ है।" गय । ये हजरत एक रोज़ सिविलसर्जनसे स्वास्थ्य- मैने कहा-"पाधाजीने ग़लत नहीं कहा. उनका लाभक नामपर गोश्त और अण्डोंकी मॉग कर बैठे। किसी जैनने सताया होगा. तभी उनकी ऐसी धारणा डाकरने कहा-आपका यह खान-पान जैन साहबको बनी होगी। एक मछली मार तालाबको गन्दा अखग्गा तो नहीं। कर देती है।" नही. "मैंन इनसे इजाजत ले ली है।" में यह सुनकर कि कर्तव्य विमूढ़ हो गया. यह मियाँवाली जेल में अमर शहीद यतीन्द्रनाथदाम कहूं कि मुझसे क़तई नहीं पूछा तो माथी झूठा बनता भगतसिंह और हरिमिह रह चुके थे. मौभाग्यसे है. राजनैतिक बन्दियोकी शानमें फर्क आता है और उन्हीं बैरिका और कोठरिया में मुझे भी रहनेका चुप रहता हूँ. तो यह सब देग्वा कैसे जायगा ? मैं अवसर मिला । ४५ माह बाद ४ नजरबन्द बङ्गाली कुछ निश्चय कर भी न पाया था कि सिविलमर्जन और श्रागय। जो हमसे सर्वथा दर और गुप्त रख
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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