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जैनधर्म बनाम समाजबाद
किरण ५ ]
लादा जा सके। नैतिकता और बलप्रयोग ये दोनों परस्पर विरोधी है । श्रतएव जैनधर्मने ब्रह्मचर्य की भावना-द्वारा स्वनिरीक्षणकी प्रवृत्तिपर जोर दिया है, क्योंकि इस प्रक्रिया-द्वारा नैतिक जीवनका श्रीगणेश होता है। हिंसाका पालन भी ब्रह्मचर्यके पालनपर श्राश्रित | सामाजिक जीवनमें संगठनकी शक्ति भी इसके द्वारा जागृत होती | बिना संयम के समाजकी व्यवस्था सुचारुरूपसे नहीं की जा सकती है, क्योंकि सामाजिक जीवनका आधार नैतिकता ही है। प्रायः देखा जाता है कि संसार मे छीना-झपटीकी दो ही वस्तुएँ है, कामिनी और कश्चन। जबतक इन दानोके प्रति आन्तरिक संयमकी भावना उत्पन्न न होगी तबतक सामाजिक जीवन कष्टकाकीर्ण माना जायगा। साराश यह है कि जीवन-निर्वाह-शारीरिक आवश्यकताकी पूर्ति के लिये अपन उचित हिस्से अधिक ऐन्द्रियक सामग्रीका उपयोग न करना व्यावहारिक ब्रह्म-भावना है।
अपरिग्रह की भावना द्वारा समाजमे सुख और शान्ति स्थापित की जाती है। इसके सम्बन्धमं पहले लिखा जा चुका है।
समाजमे ऊँच-नीच और छूआ-छूत की भावनाको पुष्ट करनेवाली जन्मना वर्ण-व्यवस्थाको जैनधर्मम नही माना है। जैनाचार्योंने स्पष्टरूपस समाजकं समस्त सदस्यों को मानवताकी दृष्टिसे एक स्तरपर लानेक लिये आचारको महत्ता दी है। जिस व्यक्तिका सदाचार जितना ही समाजके अनुकूल होगा, वह व्यक्ति उतना ही समाजमे उन्नत माना जायगा, किन्तु स्थान उसका भी सामाजिक सदस्यके नाते वही होगा जो अन्य सदस्योंका है । दलितवर्गका शोषण और जातिवादके दुरभिमानको, जिससे समाज को अहर्निश खतरोंका सामना करना पडता है, जैनधर्ममं स्थान नहीं दिया है। जैन तीर्थङ्करोंने एक मनुष्य जाति मानकर व्यवहार-मूलक वर्णव्यवस्था' बतलाई है१ मनुष्य जातिरेकैव जातिकर्मोदयाद्भवा । वृत्तिभेदा हि तद्भेदाच्चतुर्विध्यमिहाश्नुते । श्रा. पु. ३८।४५ नास्ति जातिकृती भेदी मनुष्याणा गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ॥
-गुग्णभद्र
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कम्मुणा बम्भणो होई कम्मुरगा होई खत्तियो । इमो कम्मुरगा होई सुद्दो हवइ कम्मुरगा ॥
इस प्रकार सामाजिक भेद-भावकी खाईको जैनाचार्योंने दूरकर समाजको एक संगठनके भीतर बद्ध करनेका प्रयत्न किया है।
राजनैतिक दृष्टिकोण
यद्यपि धर्मका राजनीतिसे सम्बन्ध नहीं है, फिर भी समाज और व्यक्तिकं साथ सम्बन्ध रहनेसे राजनीति के साथ भी सम्बन्ध मानना पड़ता है। जैनधर्म सदा से प्रजातन्त्र राज्यका समर्थक रहा है । इतिहास इस बातका साक्षी है कि भगवान् महावीरकं पिता महाराज सिद्धार्थ वैशालीकी जनता द्वारा चुने गये शासक थे। जैसे प्राचीन राजनीतिके प्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र में राजाको ईश्वरीय अश मानकर उसकी सर्वोपरि शक्ति स्वीकार की हैं, वैसे जैनधर्ममे नही । जैन राजनीतिमे राजा शब्दका प्रयोग राज्यकी जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्तिके रूपमे ही हुआ है, इसीलिये राजाको जनताके धर्म, अर्थ और काम इन तीनों वर्गों की समानरूपसे उन्नति करनेवाला, संगठनकर्त्ता माना है । राज्यकं प्रत्येक व्यक्तिकं वैयक्तिक चरका विश्लेषण करते हुए कहा गया है"सवसत्त्वेपु' हि समता सर्वोचरणानां परमाचरणम्"
अर्थात- उस राष्ट्र के समस्त प्राणियोंम समानताका व्यवहार करना ही परमाचरण है। तात्पर्य यह है कि लौकिक दृष्टिमे व्यक्तिस्वातन्त्र्यको स्वीकार करते हुए भी समाजको उच्च स्थान प्रदान कर उसके प्रत्येक घटकके साथ भाई-भाईकामा व्यवहार अनुशासित ढङ्गसे सम्पन्न करना परम कर्त्तव्य निर्धारित किया गया है। इस कर्त्तव्य की अवहेलना जनता द्वारा निर्वाचित राजा भी नहीं कर सकता है।
लोकतन्त्रके सिद्धान्तों द्वारा समाज के सभी सदस्योंके हिसकी बातों मे सभीका मत लेना आवश्यक है। जैन राजनीतिकारोंने तो स्पष्टरूपसे कहा है कि मनुष्य और उसके विचार समयकी आर्थिक परि१ नीतिवाक्यामृत धर्मसमुद्रदेश | सूत्र ४