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________________ १९४ अनेकान्त [वर्ष ९ - ही कार्यके दो भेद कहा जा सकता है। चन्द व्यक्ति यथार्थ रीतिसे सम्पादित करने के लिये विश्वासघातक, सत्ताके द्वारा जिस कार्यको सम्पादित नहीं कर सकते, परनिन्दा एवं परपीड़ाकारक, आत्मप्रशंमक एवं स्वार्थउसीको धोखे द्वारा पूरा करते हैं। जब शोषितवर्ग साधक वचनोंका त्याग करना चाहिये । सचाई ही उस सत्साके प्रति बगावत करता है तो ये सत्ताधारी समाजकी व्यवस्थाको मजबूत बना सकती है। अपने प्रचार और बल प्रयोग द्वारा उसे दबानेका अस्तेय (अचौर्य) की भावना मानवके हृदयमे प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार संघर्षका क्रम चलता अन्य व्यक्तियोंके अधिकारोंके लिये स्वाभाविक रहता है। अहिंमाकी दैवीशक्ति ही इस संघर्षकी सम्मान जागृत करती है। इसका वास्तविक रहस्य प्रक्रियाका अन्त कर वर्गसंघर्षको दूर कर सकती है। यह है कि किसीको दृमरके अधिकारोंपर हस्तक्षेप जैनधर्ममे कुविचार' मात्रको हिंसा कहा है। करना उचित नहीं है, बल्कि प्रत्येक अवस्थामें दंभ, पाखंड, ऊँच-नीचकी भावना, अभिमान, स्वार्थ- सामाजिक हितकी भावनाको ध्यानमें रखकर ही बुद्धि, छल-कपट, प्रभृति समस्त भावनाएँ हिसा हैं। कार्य करना उचित है। यहाँ इतना स्मरण रखना समाजको व्यवस्थित करने के लिये अहिंसाका आवश्यक है कि अधिकार वह सामाजिक वातावरण विस्तार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के है जो व्यक्तित्वकी वृद्धिक लिये आवश्यक और रूपमे किया गया है। महायक होता है । यदि इसका दुरुपयोग किया जाय तो सामाजिक जीवनका विकास या हाम भी सत्य (tuuthfullness)-अहिमाकी भावना इसीपर अवलम्बित होजाता है। इमलिय जैनाचार्यों मच्चाई के मिद्धान्तसे पूरी तरह सम्बद्ध है। यह पहले ने अधिकारको व्यक्तिगत न मानकर मामाजिक माना कहा गया है कि सत्ता और धोखा ये दोनों ही , है और उनका कथन है कि समाजक प्रत्येक घटकको समाजके अकल्याणकारक है, इन दोनोंका जन्म अपने अधिकारोंका प्रयोग ऐमा करना होगा जिमसं झठसे होता है, झूठा व्यक्ति आत्मवञ्चना तो करता अन्य किसी अधिकारमे बाधा उपस्थित न हा। ही है किन्तु समाजकी नीवको धुनकी भाँति खा जो वैयक्तिक जीवनमे अधिकार है मामाजिक जीवन जाता है। प्रायः देखा जाता है कि मिध्याभाषणका में वही कर्तव्य होजाता है, इसलिय अधिकार और प्रारम्भ खुदगर्जीकी भावनासे होना है, सर्वात्महित कत्तव्य एक दुमरकं आश्रित है, ये एक ही वस्तुके दो बादकी भावना अमत्य भाषणमे बाधक हैं । स्व. रूप है । जब व्यक्ति अन्यकी सुविधाओंका खयाल च्छन्दता र उच्छलता जैमी समाजको जरित कर अधिकारका प्रयोग करता है तो वह अधिकार करने वाली कुभावनाएँ असत्य भाषणसे ही उत्पन्न समाजकं लिय अनुशामनके रुपमे हितकारक बन होती है। क्योंकि मानव ममाजका ममस्त व्यवहार जाता है। वचनांसे ही चलता है वचनामे दीप श्राजानसे समाज यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकागेपर जोर दे की बड़ी भारी क्षति होती है। लोकमे भी प्रसिद्धि है और अन्यके अधिकारोंकी अवहेलना करे तो उसे कि इसी जिह्वाम विष और अमृत दोनों है अर्थात् किसी भी अधिकारको प्राप्त करनेका हक नहीं है। समाजको उन्नत स्तरपर ले जाने वाले अहिंसक वचन अधिकार और कर्तव्यकं उचित प्रयोगका ज्ञान प्राप्त अमृत और समाजको हानि पहुँचाने वाले हिमक करना ही मामाजिक जीवन-कलाका प्रथम पाठ है बचन विप हैं। अतएव मानव ममाजक व्यवहारको जिस प्रत्येक व्यक्तिको अचौर्य भावनाके अभ्यास १ अप्रादुर्भावः खलु रागादीना भवत्यहिसेति । द्वारा स्मरण करना चाहिये। तपामवोत्पत्ति हिमेत जिनागमस्य सक्षपः॥ ब्रह्मचर्य-अधिकार और कर्तव्यके प्रति आदर पुरुषार्थमिद्धश पाय श्लोक ४४ ऐमी चीजें नहीं है जिन्हें किसीके ऊपर जबर्दस्ती
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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