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किरण-१५ ।
सन्मात-सद्धसनाक
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विचारोंको भी प्रकट कर सकते थे, जिनके लिये बानोपयोगका प्रकरण होनेके कारण वह स्थल (सन्मतिका द्वितीय काण्ड) उपयुक्त भी था; परन्तु वैसा न करके उन्होंने वहाँ उक्त द्वात्रिंशिकाके विरुद्ध अपने विचारोंको रक्खा है और इसलिये उसपरसे यही फलित होता है कि वे उक्त द्वात्रिंशिकाके कर्ता नहीं हैं-उसके कर्ता कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये। उपाध्याय यशोविजयजीने द्वात्रिंशिकाका न्यायावतार और सन्मतिके साथ जो उक्त विरोध बैठता है उसके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा।
यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि श्र तकी अमान्यतारूप इस द्वात्रिंशिकाके कथनका विरोध न्यायावतार और सन्मतिके साथ ही नहीं है बल्कि प्रथम द्वात्रिंशिकाके साथ भी है, जिसके सुनिश्चितं नः' इत्यादि ३०वें पद्यमें जगत्प्रमाणं जिनवाक्पविषः' जैसे शब्दोंद्वारा अहत्प्रवचनरूप श्रतको प्रमाण माना गया है।
(५) निश्चयद्वात्रिंशिकाकी दो बातें और भी यहाँ प्रकट कर देनेकी हैं, जो सन्मतिके साथ स्पष्ट विरोध रखती है और वे निम्न प्रकार हैं:"ज्ञान-दर्शन-चारित्राण्युपायाः शिवहेतवः । अन्योऽन्य-प्रतिपक्षत्वाच्छुद्धावगम-शक्तयः ॥शा"
इस पद्यमें ज्ञान. दर्शन तथा चारित्रको मोक्ष-हेतुओंके रूपमें तीन उपाय(मार्ग) बतलाया है-तीनोको मिलाकर मोक्षका एक उपाय निर्दिष्ट नहीं किया; जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके प्रथमसूत्रमें मोक्षमार्गः' इस एकवचनात्मक पदके प्रयोग-द्वारा किया गया है। अतः ये तीनो यहाँ समस्तरूपमे नही किन्तु व्यस्त (अलग अलग) रूपमें मोक्षके मार्ग निर्दिष्ट हुए हैं
और उन्हें एक दूसरेके प्रतिपक्षी लिखा है। साथ ही तीनो सम्यक विशेषणसे शून्य हैं और दर्शनको ज्ञानके पूर्व न रखकर उसके अनन्तर रक्खा गया है जो कि समूची द्वात्रिंशिकापरसे श्रद्धान अर्थका वाचक भी प्रतीत नहीं होता। यह सब कथन सन्मतिसूत्रके निम्न वाक्योंके विरुद्ध जाता है. जिनमे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी प्रतिपत्तिसे सम्पन्न भव्यजीवको संसारके दुग्योका अन्तकारूपमे उल्लेग्वित किया है और कथनको हेतुवाद सम्मत बतलाया है (३-४४) तथा दर्शन शब्दका अर्थ जिनप्रणीत पदार्थोका श्रद्धान ग्रहण किया है। साथ ही सम्यग्दर्शनके उत्तरवर्ती सम्यग्ज्ञानको सम्यग्दशनसे युक्त बतलाते हुए वह इस तरह सम्यग्दर्शनरूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (२-३२. ३३):
'एवं जिणपएणत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे । पुरिसम्साभिणिबोहे दंससदो हवा जुत्तो ॥२-३२॥ सम्मएणाणे णियमेण दंसणं दसणे उ भयणिज्जं । सम्मएणाणं च इमं ति भत्थयो होइ उववरणं ॥२-३३॥ भविओ सम्मद सण-णाण-चरित्त-पडिवत्ति-संपएणो ।
णियमा दुक्खंतकडो ति लक्खणं हेउवायस्स ॥३-४४॥
निश्चयद्वात्रिशिकाका यह कथन दमरी कुछ द्वात्रिशिकाओंके भी विरुद्ध पड़ता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है:
"कियां च संज्ञान-वियोग-निष्फलां क्रिया-विहीनां च विबोधसंपदम् । निरस्यता क्लेश समूह शान्तये त्वया शिवायालिखितेव पद्धतिः ॥१-२६॥"
“यथाऽगद-परिज्ञानं नालमाऽऽमय-शान्तये । अचारित्रं तथा ज्ञामं न बुद्धयध्य(व्य)वसायतः ॥१७-२७॥"