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अनेकान्त
[वर्ष ९
कि उक्त माम्नायके विद्वानों द्वारा स्वोपज्ञ भाष्य मान्यताओं एव क्रियाओंका समर्थन करता है, उक्त अर्थात स्वयं प्रन्थकर्ता उमास्वातिकृत समझा और आम्नायके अनुयायियों-द्वारा स्वयं उमास्वातिकी कृति बताया जाता रहा है। कुछ वर्ष हुए, अनेकान्त आदि माना जाता है। श्वेताम्बरोंका उक्त भाष्यको उमा पत्रोंमे इस विषयको लेकर श्वेताम्बर तथा दिगम्बर स्वामि कृत मानना कहाँ तक सङ्गत है, यह कहना विद्वानोंके बीच पर्याप्त वादविवाद चला था, और तो जरा कठिन है, किन्तु हमे इस बातको खुले हृदयउसका परिणाम प्रायः यही निकला था कि कथित मे स्वीकार करनेमे अवश्य ही कोई झिझक नहीं खोपज्ञ भाष्य श्राचार्य उमास्वामीके समयमे बहुत होनी चाहिये कि अपने ही प्रन्थपर स्वोपज्ञ भाष्य पीछेकी रचना है और वह उनके स्वयके द्वारा रची लिखनेका श्रेय हम आधुनिक विद्वानोंने भी अनेक जानी सम्भव नहीं है। किन्तु दिगम्बर विद्वानों द्वारा ग्रन्थकारोंको दे डाला है। अन्तु, 'अर्थशास्त्र के स्वयंके प्रस्तुत प्रबल एवं अकाट्य प्रमाणोंसे पार युक्तियोंके एक श्लोकके सुम्पष्ट अभिधेयार्थके बावजूद 'अर्थशास्त्र' बावजूद उदारसे उदार श्वेताम्बर विद्वान भी भाप्य- जिस रूपमे आज उपलब्ध है उसी रूपमे स्वय की म्वोपज्ञतापर अविश्वास करनेको तैयार नहीं होते। कौटिल्य द्वारा रचा कहा जा रहा है, जबकि वास्तव
इसी विषयपर, प्रमगवश, प्राचीन इतिहाम- मे वह मृलग्रन्थकी विष्णुगुप्त नामक एक विद्वान विशेपन प्रो सी. डी चटर्जी महोदय ने अपने एक द्वारा रचित टीकामात्र है, जिसमें कि मूल अर्थशास्त्रलेखमे' सुन्दर प्रकाश डाला है। उक्त लंबक फुटनोट के पद्योंको अधिांशतः गद्यरूप दे दिया गया है, और नं.४१ मे आप कथन करते है कि
शेष पद्योंमेसे कुछकी व्याख्या कर दी गई है तथा कुछ "यह विश्वास करना अत्यन्त कठिन है कि एकको उनके स्वरूपमे ही उद्धृत कर दिया गया है। उमास्वामी को 'तत्वार्थाधिगममूत्र' जैमा जैनसिद्धान्त इस प्रकारकं उदाहरण एक दो नही, अनेक है। हम (तत्त्वज्ञान एवं आचार) का अपूर्व मार-सङ्कलन, लोगोने धनञ्जयकं 'दशम्पक'पर रचे गये 'अवलोक' जोकि जैनधर्ममे वही स्थान रखता है जैसा कि का कतृत्व धनञ्जयको ही प्रदान किया, और यह बौद्धधर्मम विशुद्धिमग्ग' दिगम्बर आम्नाय द्वारा माना कि उस 'अवलोक'को उसने 'धनिक' नामसे अपने अङ्ग एवं अङ्गवाह्य श्रुत-द्वयका म्वरूप तथा रचा, और यह नाम उसने अपने ग्रन्थपर स्वयं ही आकार पूर्णतया सुनिश्चितकर लिय जान के पूर्व ही टीका रचनकं लिये उपनामक रूपमे धारण किया लिखा जा सका हो ।
था। इसी प्रकार इतिहासकार महानामको अपने ___ "यह कि, उमास्वाति अथवा उमा-वामी एक 'महावश पर स्वयं ही टीका रचनेका श्रेय दिया गया दिगम्बर प्राचाय थे इस बातम तनिक भी सन्देह है, इस बातकी भी अवहेलना करते हुए कि स्वयं नहीं है, किन्तु साथ ही यह बात भी उतनी ही मत्य ग्रन्थका पाठ इस बातको प्रसिद्ध कर रहा है। है कि उन्होंने अपने ग्रन्थमे दिगम्बगं और श्वे- हमारी इस प्रकारकी श्रज्ञ-विश्वास-प्रियताके ये ताम्बरोंक बीच विवादास्पद विषयोंका समावेश न कतिपय ज्वलन्त उदाहरण है। और यदि हम (आधुकरनेमे प्रयत्नपूर्वक मावधानी बरती है। तत्त्वाथा-निक विद्वान) तत्त्वार्थाधिगमके कथित मूलभाष्यका धिगमसूत्रका मूलभाय (बिबलियोथेका इडिका कतत्व भी उसके स्वयंके रचयिता, उमास्वामिको ही १५०३-५) जो कि बहुलताके साथ श्वेताम्बर प्रदान करते है, दिगम्बर विद्वानोंकी प्रबल पुष्ट
Dr.BC.Law Volume, Partli प्रकाशित आपत्तियोंकी भी अवहेलना करते हुए, तब भी हम २ और अपने लेम्वमे अन्यत्र आपने कथन किया है कि कोई नई मिसाल पैदा नहीं कर रहे है, क्योंकि यह
"पूर्ण सम्भावना यही है कि कुन्दकुन्द और उमास्वामी रिवाज तो हमने पहले से ही भली प्रकार स्थापित दोनो सन् ई० पूर्व ७५से सन् ई०५०के बीच हए थे।" कर लिया है।"