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किरण ५]
कथित स्वोपज्ञ भाष्य
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अपनी बातका धनी होता है। जो वायदा करता है सम्बन्धमें भी हम अपने पूर्वजोंकी त्यागवृत्ति, सन्तोष उमे जानपर खेलकर भी पूरा करता है। सूर्य-चन्द्रकी और परिमाणवृत्ति फिरसे अपनानी होगी। गति बदल सकती है, परन्तु इनकी बात नहीं बदल जब हम इस तरहके पात्म-शुद्धिके कार्य अपने मकती। जानसे क्रीमती वचनको समझते है। जीवनमे उतारेगे तभी हमारा यह लाक और परलोक
(४) जैनोंसे कभी धोखेकी मम्भावना नही, सुधरेगा। और तभी मचे प्रोंमे जैनधर्मका प्रसार जो वस्त देगे, खरी और पूरी देगे। इनसे बिन गिने होगा और संसार इसकी ओर आकषित होगा। रुपये लेनेपर भी पाईका फर्क नही पड़ेगा । इनका उक्त विचार आज शायद कुछ नवीन और अटटिकट चैक करना, चुङ्गीपर पूछना वर्जिन है। जैन पटेसे प्रतीत होते हों, परन्तु हमारे धर्मकी भित्ति ही कह देनका ही यह अर्थ होना चाहिए कि जैन इन ईटोपर खड़ी की गह है। अगर जैनधर्मको राजकीय नियमके विरुद्ध कोई वस्तु नही रखते जीवित रखना है तो उसकी इन नीवकी ईटोंको और न गजकाय या प्रजाहितके साधनोंका दुरुपयोग हरगिज हरगिज नहीं हिलने देना होगा। ही करते है। यह मिट्टी और पानी भी पूछकर लेते है। हम भारतके आदि-निवामी है। भारत हमारी
(५) हमारा शील-स्वभाव ऐमा हो कि निर्जन है । हमारा हर प्रयत्न, हर श्वाम इसके लिये स्थानमं भी किमी अबलाको हमारे प्रति मन्देह न नपयोगी हो। हममं म्बनम भी इमका अहित नही। हो। वह अपने निकट हमारी उपस्थिति रक्षककी इसके लिये हमे सदैव जागरूक रहना होगा। श्राज भॉनि ममझ । जैन भी बलात्कारी या कुशाल हो स्वार्थक लिये धन-लोलुप पाकिस्तानी क्षेत्रांम अपने मकता है यह उमक मनमे कल्पना ही न पाकर दे। देश-भाइयोंका गला काटकर कपड़ा और अन भज
(६) परिप्रहवादको लेकर आज सारा संसार रहे हैं और अनेक पडयन्त्रोंमें लिप्त होरह है। ऐम त्रम्त है। इस आपा-धापीक कारण ही युद्ध होते है, अधम कार्योस-मनुष्योम हमे दूर रहना होगा। हम जीवनोपयोगी वस्तुओपर कण्ट्रोल लगाते है। मज़- अपने अच्छे कार्योस जैन-ममाजकी कीति यदि न दर-पजीपति मघर्ष चलते है । अत: हम अपने बढा मके तो हम पूर्वजाक किये हुए मत्कार्योंपर पानी जीवनम 'जीयां और जीनदा'का सिद्धान्त उतारना फेनिका कोई अधिकार नहीं हैं। होगा । पैमा इक्ट्रा करना पाप नही, नमक बलपर सालाना शोपण करना-अत्याचार ढाना पाप है । परिग्रहकं १४ मई ४८ )
-गायलीय कथित स्त्रोपज्ञ भाष्य
(लेम्बक--बा० न्यानिप्रमाद जैन एम. ए.) चार्य उमाम्वामि-कुन तत्वार्थाधिगम मत्र तम दिगम्बर टीका इम ममय उपलब्ध है वह आचार्य लागिम्बर एव श्वेताम्बर दोनों ही मम्प्रदायों देवनन्दी पूज्यपाद (५वी शताब्दी डे) द्वारा चन
समानरूपसे परम मान्य ग्रन्थ है, और दोनों ही 'सर्वामिद्धि' है। नदपरान्त, ७वी शताब्दी ई०मे मम्प्रदायोंक उद्भट विद्वानों-द्वारा, प्राचीन कालसे ही, भट्टाकलङ्कदेवने 'तत्वार्थराजवातिक', ८वीं शताब्दी जितने बहुमख्यक टीका-प्रन्थ इस एक धर्मशास्त्रपर इम्म विद्यानन्दस्वामीन "शोकवार्तिक' तथाउनके रचे गये उतने शायद किमी अन्य जैन, और मम्भवतया पश्चात अन्य अनेक टीकाएँ दिगवर विद्वानोन रची हैं। अजैन प्रन्थपर भी नहीं रचं गये । उसकी सर्वप्रथम श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा इम ग्रन्थकी ठीकाएँ टीका दूसरी शताब्दी ई में आचार्य स्वामिममन्त- प्रायः ९वी शताब्दी ई०के पश्चान् रची जानी प्रारम्भ भद्रद्वारा रची गई बताई जाती है, किन्तु वह टीका हई। किन्तु श्वेताम्बर आम्नायमे इस मुत्र प्रन्थका वर्तमानमे अनुपलब्ध है । तत्त्वार्थमुत्रकी जो प्राचीन- एक प्राचीन भाष्य भी प्रचलित रहना भाया है, जिसे