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हिन्दीके दो नवीन महाकाव्य
(मुनि कान्तिसागर)
"मुझे जैनोंके प्रति कोई विशेष प्रकारका पक्षपात सम्मुख रहना ही चाहिये । एवं जिस भाषाका युग नही है क्योंकि मानवमात्र मेरे लिए समान है। मैं होगा उसीमें उसे अपनी भाव-धारा मिला देनी होगी। जैनकुलमें पैदा हुआ हूँ इससे कुछ मोह अवश्य है। युगके साथ रहना है तो नूतन साहित्य सृजन करना अतः कहनेमें आ जाता है। हमारा जैनसमाज अपनी ही होगा जो मानसिक पौष्टिक खाद्यकी पूर्ति कर सके। साम्प्रदायिक सीमाओंकी रक्षाके लिए प्रतिवर्ष पर्याप्त जैन साहित्यका अन्वेषण करनेसे स्पष्ट हो जाता धन व्यय करता है। यदि उसमेंसे दशांश भी है कि जैन विद्वानोने सदैव अपने विचारोको रखने में साहित्यिक कार्य में या कोई जनकल्याण कार्य, स्थायी सामयिक भाषाओका अपनी कृतियोंमें बड़ी उदारताकार्योमे व्यय करे तो कितना अच्छा हो भगवान महा
से उपयोग किया है। यही कारण है कि आज प्रान्तीय वीरकी सैद्धान्तिक प्रणालीके अनुसरण करने तक में
भाषाओका साहित्य-भण्डार जैनकृतियोसे चमक रहा हम पश्चातपाद-से प्रतीत हा रहे है। हमारा प्राचीन है। जैन विद्रोग्य एवं लोकभाग्य साहित्यके मना साहित्य ऐसा है जिसपर न केवल, हम भारतीय ही. थे। यदि स्पष्ट शब्दोंमे कह दिया जाय कि "भारतीय अपितु सारा संसार गर्व कर सकता है। जब वर्तमान
भाषाओंके संरक्षण और विकासमे जैनाने बहुत बड़ा जैनमाहित्यको देखते हैं तो मनमें बड़ी व्यथा योगदान किया है ।" तो अत्युक्ति न होगी। परन्तु होती है।"
वर्तमानमें जैनसमाजका बहुत बड़ा भाग उपयुक्त हिन्दीके सुप्रसिद्ध लेग्वक और कुछ अंशोंमें चिन्तक परम्पराके परिपालनमे असमर्थ प्रमाणित हो रहा है बाबू जैनेन्द्रकुमार जैन गत माम कलकत्ता जाते समय अर्थात् वह राष्ट्रभाषा हिन्दीकी उपेक्षा कर रहा है। पटनामे ठहरे थे । उस समय आपने मर सम्मुख जिस समय जिस भाषाका प्रावल्य हो उसीमें प्रसारित जैनसमाजकी दान-विषयक भीषण अव्यवस्थाक. सिद्धान्त ही सर्वप्राय हो सकते है। आज कहानी, नग्न चित्र बड़े ही मार्मिक शब्दोमें उपस्थित करते हुए उपन्यास और कविताकी चारो ओर धूम मची हुई उपर्युक्त शब्द कहे।
. है। गम्भीर साहित्यके पाठकोंकी संख्या अपेक्षाकृत श्रीजनेन्द्र जीके शब्दों में कितनी वेदना भरी हुई है।
अत्यल्प है। अतः क्यो नहीं उन्हीके द्वारा जैनअखण्ड सत्य चमक रहा है। हम प्राचीनतापर फले संस्कृतिके तत्वोंका प्रचार किया जाय । इमसे दो नही समाते. परन्तु वर्तमानपर लेशमात्र भी विचार लाभ होंगे-आम जनता जैनसंस्कृतिके हृदयका तक नहीं करते जो वह भी एक दिन प्राचीन होकर सरलतासे पहिचानेगी एवं हिन्दी साहित्यकी श्रीवृद्धि रहेगा। अतः वर्तमान जैनसमाजपर साहित्यिक दृष्टि- होगी। हमें प्रसन्नता है कि बनारससे श्रीयत बालसे विचार करना अत्यन्त वांछनीय है। समाजको चन्द्र जैन आदि कुछेक उत्साही युवकोंने वैसा प्रयास उच्च स्तरपर सामयिक साहित्य ही ले जा सकता है। चालू किया है। हम यहॉपर उन बन्धुओंका स्वागत प्रत्येक युग अपनी-अपनी समस्याएँ रखते हैं। इनकी करते हैं और भविष्यके लिए आशा करते हैं कि वे उपेक्षा करना हमारे लिए घातक सिद्ध होगा। युवक- अपनी धाराका शुष्क न होने देंगे। वर्ग क्या चाहता है यह प्रश्न साहित्य-निर्माताके विहारके प्रथम पंक्तिक कवियोंमें कविसम्राट