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________________ किरण ५] त्यागका वास्तविक रूप १६५ नित्योद्योत विशद-ज्ञानज्योति स्वरूप हैं। मैं एक है। मे बैठा है और कहता है कि मैं प्यासा हं। नाकने पर-पदार्थसे मेरा क्या सम्बन्ध ? अणुमात्र भी पर. कहा कि भद्र ' जरा अपनी ओर भी देखो। तुम भी द्रव्य मेरा नहीं है। हमारे ज्ञानमें ज्ञेय श्राना है पर चौबीमों घण्टे धर्ममें बैठे हो. इधर-उधर धर्मकी वह भी मुझसे भिन्न है। मै रसको जानता हूँ पर ग्म खोजमे क्यों फिर रहे हो? धर्म तो तुम्हारा आत्मामेरा नहीं हो जाता । मै नव पदार्थों को जानता हूँ पर का स्वभाव है, वह अन्यत्र कहाँ मिलेगा। नव पदार्थ मेरे नहीं हो जाते । भगवान् कुन्दकुन्द- ___ सम्यग्दृष्टि सोचता है जिस कालमे जो बात होने स्वामीने लिखा है वाली होती है उसे कौन टाल सकता है ? भगवान आदिनाथको ६ माह आहार नहीं मिला । पाण्डवोंको "अट्टमिक्को खलु सुद्धो दंसण-णाणमइश्रो मदाऽवी। वि अस्थि मज्झ किचि वि अगणं परमाणुमित्तं पि॥" अन्तर्मुहम केवलज्ञान होने वाला था, ज्ञानकल्याण का उत्सव करने के लिये देवलोग आने वाले थे। पर मै एक हूं, शुद्ध हूं, दर्शन-ज्ञानमय हूं, अरूपी इधर उन्हें तप्त लोहेक जिरह वख्तर पहिनाये जाने है । अधिककी बात जाने दो परमाणुमात्र भी परद्रव्य है। देव कुछ ममय पहले और श्राजाते ' श्रा कैम मेग नहीं है। जाते ? होना तो वही था जो हुया था। यही सोच पर बात यह है कि हम लोगोंने तिलीका तेल कर मम्यष्टि न इम लोकसे डरता है, न परलोकसे। खाया है, घी नहीं। इसलिये उसे ही मब कुछ समझ न उसे इस बातका भय होता है कि मेरी रक्षा करने रहे है। कहा है-'तिलतैलमेव मिष्टं येन न दृष्ट घृत वाले गढ, कोट आदि कुछ भी नहीं है। मैं कैसे कापि । अविदितपरमानन्दो जनो वदति विपय एव रहगा ? न उसे आकस्मिक भय होता है और रमणीयः ।।' जिमने वास्तविक सुग्वका अनुभव नहीं सबसे बड़ा मरणका भय होता है सो सम्यग्दृष्टिको किया वह विषयसुख को ही रमणीय कहता है । इम वह भी नहीं होना वह अपनेको सदा 'अनाद्यनन्तजीवकी हालत उस मनुप्यकं समान होरही है जो नित्योद्योतविशदज्ञानज्योति' स्वरूप मानता है। सुवर्ण रखे तो अपनी मुट्टीम है पर खोजता फिरता सम्यग्दृष्टि जीव मसारसं उदासीन होकर रहता है। है अन्यत्र । अन्यत्र कहाँ धरा ? आत्माकी चीज तुलसीदासने एक दोहेमे कहा हैआत्मामे ही मिल मकती है। 'जगते रह छत्तीस हो गमचरण छह तीन ।' एक भद्रप्राणी था। उसे धर्मकी इच्छा हुई। मुनि- ममारसे ३६क समान विमुख रहो और रामचन्द्र गजके पाम पहुँचा, मुझे धर्म चाहिए। मुनिराजने जीके चरणोंम ६३के समान सम्मुख । कहा- भैया । मुझ और बहुतमा काम करना है। वास्तवम वस्तुनत्त्व यही है कि सम्यग्दृष्टिकी अत: अवमर नहीं। इम पामकी नदीम चले जाओ श्रात्मा बड़ी पवित्र होजाती है, उसका श्रद्धान गुग्ण उसमे एक नाक रहता है। मैंने उसे अभी अभी धर्म बड़ा प्रबल हो जाता है। यदि श्रद्धान न होता तो दिया है वह तुम्ह दे देगा। भद्रप्रारणी नाकृतं पाम आपके गाँवम जो ८ उपवास वाला बैठा है वह जाकर कहता है कि मुनिराजन धर्मकं अर्थ मुझं कहांस श्राता ? इम लड़कीकं (काशीबाइकी ओर आपके पास भेजा है, धर्म दीजिये । नाक बोला, अभी मत करके) आज पाठवा उपवास है। नत्था कही लो, एक मिनिटमे लो, पर पहले एक काम मंग कर बैठा होगा उसक बारहवां उपवास है और एक-एक, दो। मै बडा प्यामा है, यह मामने किनारंपर एक दो-दो उपवामवालोंकी तो गिनती ही क्या है ? कुत्रा है उमस लाटा भर पानी लाकर मुझे पिला दी, 'श्रलमा कौन पियादोंम' ? वे तो मी, दी-मी होंगे। फिर मै आपको धर्म देना है। भद्रप्रागणी कहना है- यदि धर्मका श्रद्धान न होता तो इतना लंश फोकटम तृ बड़ा मृग्वं मालूम होता है, चौबीस घण्टं तो पानी- कौन महता?
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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