________________
११०
अनेकान्त
[वर्ष ९
-
अहिमाकी जितनी सूक्ष्म व्याख्या एव आचरण की मेरी गयमें इमके बने रहनेका कारण यह है कि तत्परता और कठोरता जैनधर्ममें पाई जाती है वैसी यज्ञमे पशु-हिमा करना बड़ा खर्चीला अनुष्ठान था विश्वके किसी भी धर्मग्रन्थमें पाई नहीं जाती । जैन- उमे तो राजा-महाराजा व सम्भ्रान्त लोग ही करवाते धर्मकी अहिंमाकी मर्यादा मानवातक ही सीमित नहीं थे। अत: उसकी व्यापकता इतनी नही हुई, इसीसे पर पशु-पक्षीके माथ पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल एवं थोड़े व्यक्तियोंके हृदय-परिवर्तन-द्वारा वह बन्द हो वनम्पति जगतकी रक्षामे भी आगे बढ़ती है। किसी गया; पर देवीपूजाम एक-आध बकरे आदिकी बलि भी प्राणका विनाश तो हिंमा है ही, यहाँ तो उनको साधारण बात थी और इसलिये वह घर-घरमे मानसिक, वाचिक, कायिक एव कृतकारित अनुमोदित प्रचारित हो गई। ऐहिक स्वार्थ ही इसमे मुख्य था । रूपसे भी तनिक-मा कष्ट पहुँचाना भी हिसाके अत: इसको बन्द करने के लिये सारी जनताका हृदय अन्तर्गत माना गया है। इतना ही नहीं, किसी भी परिवर्तन होना आवश्यक था । धर्म-प्रचार सभ्य प्राणीके विनाश एवं कष्ट न देनेपर भी यदि हमारे समाजमे ही अधिक प्रबल हो सका, अत: उन्हीके अन्नजगत-भावनामे भी किसीके प्रति कालुष्य है और घरोंसे तो बलि बन्द हुई पर ग्रामीण जनता तथा प्रमादवश स्वगुणोंपर कर्म-श्रावरण आता है तो उसे साधारण बुद्धि वाले लोगोंमे यह चलती ही रही। भी आत्मगुरणका विनाश मानकर हिंसाकी सज्ञा दी इमको बन्द कराने के लिये बहुत बड़े आन्दोलनकी गई है। श्रीमद् देवचन्दजीने आध्यात्मगीनामे कहा आवश्यकता थी। जैनाचार्योंने समय-समयपर इसे है कि
हटानके लिये विविध प्रयत्न किये, उन्हीमेसे एक आत्मगुणनो हणतो, हिंसक भावे थाय । प्रयत्न यशोधरकी कथाका निर्माण भी कहा जा आत्मधर्मनो रक्षक, भाव अहिम कहाय ।। सकता है । यशोधरचरित्रमे प्रधान घटना यही है
आत्मगुणरक्षणा, नेह धर्म । कि यशोधरने अनिच्छासे माताके दबावके कारण स्वगुण विध्वसना, तेह अधर्म ।।
देवीके आगे साक्षात मुर्गेका नहीं पर आटेकं मुर्गेका अहिंसाका इतनी गम्भीर एव मर्मस्पर्शी व्याख्या वध किया, उसके फलस्वरूप उसे व उसकी माताको विश्वके किसी भी अन्य धर्ममे नही पाई जायगी। अनेक बार मयूर, कुत्ता, संही, सर्प, मच्छ, मगर, जैनधर्म महान् उद्धारक भगवान महावीरने अहिंसा बकरा, भैमा आदि पशु-योनियोंमे उत्पन्न होना पड़ा पालनके लिये मुनिधर्ममे कठिन-से-कठिन नियम एव इन सब भवोंमे उनको निर्दयता-पूर्वक मारा गया। बनाये, जिससे अधिक-से-अधिक हिसाकी प्रतिष्ठा जीवनमे हो मकं ।
इस कथाके प्रचारका उद्देश्य यह था कि जब
अनिच्छामे आटे के मुर्गेको देवी के बलि देनेपर इतने भगवान महावीरके समय यज्ञादिमे महान
दुःख उठाने पड़े तो जान-बूझकर हर्पमे जो साक्षात नरहिमा व पशुहिसा हो रही थी। धर्मके नामपर
जीव-हत्या करते है उनको नरकम भी कहाँ ठिकाना होने वाली इस जीवहत्याको धर्मके ठेकेदार स्वर्ग
होगा ? अतः बलि-प्रथा दुर्गतिदाता होनेसे सर्वथा प्राप्तिका साधन बतलाते थे। इस घोर पाखण्डका
परिहार्य है। भगवान महावीर एव बुद्धने सख्त विरोध किया। जिसके फलस्वरूप हजारो ब्राह्मणोंने उनका शिष्यत्व पशु-बलिको दुर्गतिदायी सिद्ध करनेमे सहायक प्रहण किया और यज्ञ हाने प्रायः बन्दसे हो गये। इस कथाको जैन विद्वानो द्वारा अधिक अपनाना यज्ञके बाद पशु-हिसाकी प्रवृत्ति देवीपूजामे पाई जाती स्वाभाविक एवं उचित ही था। वास्तवम इम कथासे है, जो हजारों वर्षोंसे अनर्थ मचा रही है। यज्ञ बन्द हजारों श्रआत्माओंको पशु-बलिसे छुटकारा दिलाने व हो गये, पर इसने तो अभीतक पिड नहीं छोड़ा। दूर रखने में सहायता मिली होगी।