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भनेकान्त
[ वर्ष
शठकमठ विमुक्ताग्रायसंघातघात-, काल कोठरीमें अपने जीवनकी सिसकियाँ ले रहे __ व्यथितमपिमनो न ध्यानतो यस्य नेतुः। होंगे। भचलदचलतुन्यं विश्वविश्वकधीरः,
सम्प्रदाय और समय
प्रन्थकर्ताने अपनी रचनाओं में अपने सम्प्रदायका सदिशतु शुभमीशः पार्श्वनाथो जिनो वः ।
कोई समुल्लेख नहीं किया और न यही बतलानेका इस पधमें बतलाया है कि दुष्ट कमठ के द्वारा
प्रयत्न किया है कि उक्त कृतियां कब और किसके मुक्त मेघसमूहसे पीड़ित होते हुए जिनका मन ध्यानसे
राज्यकालमें रची गई हैं ? हां, काव्यानुशासनवृत्तिके जरा भी विचलित नहीं हश्रा वे मेरुके समान अचल
ध्यानपूर्वक समीक्षणसे इस बातका अवश्य आभास और विश्वके अद्वितीय धीर, ईश पाश्वनाथ जिन
हो जाता है कि कविका सम्प्रदाय 'दिगम्बर' था; क्योंतुम्हें कल्याण प्रदान करें।
कि उन्होंने उक्त वृत्ति के पृष्ठ ६ पर विक्रमकी दूसरी इसी तरह कारणमाला के उदाहरण स्वरूप दिया
तीसरी शताब्दिके महान आचार्य समन्तभद्र के 'बृहतहुआ निम्न पद्य भी बड़ा ही रोचक प्रतीत होता है। जिसमें जितेन्द्रियताको विनयका कारण बतलाया
स्वयम्भू स्तोत्रके द्वितीय पद्यको 'आगम श्राप्तवचनं गया है और विनयसे गुणोत्कर्ष, गणोत्कर्षसे लोका
यथा' वाक्य के साथ उध्दत किया है । और पृष्ठ नुरञ्जन, और जनानुरागसे सम्पदाकी अभिवृद्धिका
५पर भी 'जैन यथा' वाक्य के साथ उक्त स्तवनका होना सूचित किया है, वह पद्य इस प्रकार है
'नयास्तष स्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविद्धा इव लोह
धातवः। भवन्त्यमी प्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तजितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं,
मार्या: प्रणिता हितैपिण:"॥ यह ६५वां पद्य समुगुणप्रकर्षों विनयादवाप्यते ।
द्धृत किया है। इसके सिवाय पृष्ठ १५ पर ११ वीं गुणप्रकर्षणजनोऽनुरज्यते,
शताब्दीक विद्वान आचार्य वीरनन्दीके 'चन्द्रप्रभचरित' जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः॥ का आदि मङ्गलपद्य + भी दिया है, और पृष्ठ १६ पर इस ग्रन्थकी स्वोपज्ञवृत्तिमें कविने अपनी एक
_ सज्जन-दुजैन चिन्तामें 'नेमिनिर्वाण काव्यके' प्रथम कृतिका 'स्वोपज्ञ ऋपभदेव महाकाव्ये वाक्यके साथ
सगका निम्र२० वां पद्य उद्धृत किया हैउल्लेख किया है और उसे 'महाकाव्य' बतलाया है,
गुणप्रतीतिः सुजनाजस्य, जिससे बह एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ जान पड़ता है
दोपेष्ववज्ञा खलजल्पितेषु । इतना ही नहीं किन्तु उसका निम्न पद्य भी उद्धत अतोध्र वं नेह मम प्रबन्धे, कियायत्पुष्पदन्त-मुनिसेन-मुनीन्द्रमुख्यैः,
प्रभूतदोषेऽप्ययशोवकाशः ॥ पूर्वकृतं सुकविभिस्तदहं विधित्सुः ।।
और उसी १६वें पृष्ठ में उल्लिखित उद्यानजलकलि
' मधुपानवर्णनं नेभिनिर्वाण राजीमती परित्यागादी' हास्यास्य कस्य ननु नास्ति तथापिसन्तः, इस वाक्य के साथ नेमिनिर्वाण और गजीमती परि
शृण्वन्तु कश्चनममापि सुयुक्ति सूकम। * प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृप्यादिपुकर्मसु प्रजाः । इसके सिवाय, कविने भव्यनाटक और अलंका- प्रबुद्धतत्वः पुनरद्भ तोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदावरः ॥२॥ रादि काव्य बनाये थे। परन्तु वे सब अभी तक अनु- + श्रिय क्रियाद्यस्य सुरागमे नटत्सुरेद्रनेत्रप्रतिबिबलाछिता। पलब्ध हैं, मालूम नहीं, कि वे किस शास्त्रभण्डारकी सभा वभौ रत्नमयी महोत्पलेः कृतोपहारेव स वोग्रजो जिनः।।