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अनेकान्त
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परन्तु उनमें हाथोके पैरतले दबवाकर मरवानेको उसमें आश्चर्यको कोई स्थान नहीं रहता। यही घटनाका बहुत प्रचार है। यह घटना कोरी कल्पना ही कारण है कि उस समयके विद्वानोंने राज्यके भयसे नहीं है, किन्तु उसमें उनकी मृत्युका रहस्य निहित है। उनकी मृत्यु आदिके सम्बन्धमें स्पष्ट कुछभी नहीं पहिले मेरी यह धारणा थी कि इस प्रकारकी जिखा; क्योंकि रियासतोंमें खासतौर पर मृत्युभय अकल्पित घटना पंटोडरमल्लजी जैसे महान विद्वानके और धनादिके अपहरणकी सहस्रों घटनार्य घटता साथ नहीं घट सकती; परन्तु बहुत कुछ अन्वेषण रहती हैं, और उनसे प्रजामें घोर आतंक बना रहता तथा उसपर काफी विचार करने के बाद अब मेरी है। किन्तु आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं और यह दृढ़ धारणा होगई है कि उपरोक्त किम्बदन्ती अब प्रायः इस प्रकारकी घटनायें कहीं सुनने में नहीं असत्य नहीं है किन्तु वह किसी तथ्यको लिये हुये पाती। अवश्य है। जब हम उसपर गहरा विचार करते अब प्रश्न केवल समयकरह जाता है कि उक्त हैं और पं० जीके व्यक्तित्व तथा उनकी सोधी सादी घटना कब घटी ? यद्यपि इस सम्बन्धमें इतनाही कहा भद्र परिणतिको ओरभी ध्यान देते हैं। जो स्वप्नमें भी जा सकता है कि सं०१८२१ और सं०१८२४ के मध्य कभी पीड़ा देनेका भाव नहीं रखते थे, तब उनके में माधवसिहजी प्रथमके राज्य कालमें किसी समय प्रति विद्वेषवश अथवा उनके प्रभाव तथा व्यक्तित्वके घटी है. परन्तु उसको अधिकांश सम्भावना सं० १८२४ साथ घोर ईर्षा रखनेवाले जैनेतर व्यक्तिके द्वारा में जान पड़ती है। चूंकि पं० देवीदास जीकी जयपुरसे साम्प्रदायिक व्यामोहवश सुझाये गये अकल्पित एवं बसवा जाने, और उससे वापिस लौटनेपर पुनः पं० अशक्य अपराधके द्वारा अन्धश्रद्धावश बिना किसी टोडरमल्लजी नहीं मिले, तब उन्होंने उनके लघुपुत्र निणेयके यदि राजाका कोप सहसा उमड़ पड़ा हो, पण्डित गुमानीरामजी के पासही तत्त्वचर्चा सुनकर और राजाने पंडितजीके लिये बिना किसी अपराधके करज्ञान प्राप्त किया, यह उल्लेख सं०१८२४ के बादका भी उक्त प्रकारसे मृत्युदण्ड' का फतवा दे दिया हो तो है। और उसके अनन्तर देवीदास जी जयपुरमें सं० कोई आश्चर्यको बात नहीं है जब हम उस समयकी १८३८ तक रहे हैं। भारतीय रियासतीय परिस्थितियों पर ध्यान देते हैं।
वीर सेवामन्दिर और उनके अन्धश्रद्धावश किये गये अन्याय- ६-१-१६४८
सरसावा अत्याचारोंकी झांकीका अवलोकन करते हैं, तब
समन्तभद्र भाष्य
समन्तभद्र के भाष्यकी समस्या विचार कके लिये एक नहीं किया और जब समन्तभद्र तथा उनके ग्रथों के खास विचारणीय वस्तु बनी हुई है। अभीतक में स्वयं उल्लेखको लिये हये कोई नया ग्रन्थ दृष्टि में श्राता है इस निष्कपर पहुंचा था कि समन्तभद्र के द्वारा तोमैं बड़ी उत्सुकतासे उसे देखने में प्रवृत्त होता हूं। रचागया जो भाष्य माना जाता है और जिसे तत्त्वा- और यह जाननेको उत्सुक रहता हूं कि इसमें समन्त
भाष्य अथवा गन्धहस्ति महाभाष्य कहा जाता है भद्रके तथाकथित भाष्यका उल्लेख तो नहीं है ? वह एक कल्पनामात्र है और उस कल्पना के जनक चुनांचे अभी हाल में 'लक्षणावली' में जिन प्रकि अभयचन्द्र सूरि हैं। परन्तु मैंने अपनी खोज को बन्द लक्षणोंका संकलन नहीं हुआ था उनके लक्षण