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किरण १ ।
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पञ्चमीके दिन पूर्ण हुई है, जैसा कि उसके प्रशस्ति पद्यसे पदार्थका विवेचन बहुत ही सरल शब्दों में किया गया स्पष्ट है:है । और जीवोंके मिध्यात्वको छुड़ाने का पूरा प्रयत्न किया गया है, यह मल्लजीकी स्वतन्त्र रचना है। यह ग्रन्थभी, जिसकी लोकसंख्या बीसहजारके करीब है; सं० १८२१ से पहले ही रचा गया है; क्योंकि ब्रह्मचारी रायमल्लजीने इन्द्रध्वज पूजाकी पत्रिकामें इसके रवे जानेका उल्लेख किया है। मालूम होता है कि यह ग्रन्थ बादको पूरा नहीं हो सका । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय टीका -
श्राचार्य कल्प १० टोडरमल्लजी
संवत्सर शक्त, अष्टादशशत लौकिकयुक्त । माघशुक्ल पञ्चमदिन होत, भयो ग्रन्थ पूरन उद्योत ।। लब्धिसार-क्षपणासारकी इस टीकाके अन्त में अर्थसंदृष्टि नामका एक अधिकार भी साथ में दिया हुआ है, जिसमें उक्त ग्रन्थमें आनेवाली असंदृष्टियों और उनकी संज्ञाओं तथा अलौकिक गणितके करण - सूत्रों का विवेचन किया गया है। यह संदृष्टि अधिकार उस संदृष्टि अधिकारसे भिन्न है जिसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड - कर्मकाण्डको संस्कृतटीकागत अलौकिक गणितके उदाहरणों, करणसूत्रों, संख्यात, असंख्यात और अनन्तकी संज्ञाओं और असंदृष्टियोंका विवेचन स्वतन्त्र ग्रन्थके रूप में किया गया है, और जो 'अर्थसंदृष्टि' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध है । यद्यपि टीका ग्रन्थोंके आदि में पाई जाने वाली पीठिकामें ग्रन्थगत संज्ञाओं एवं विशेषताओंका दिग्दर्शन करा दिया है। जिससे पाठकजन उस ग्रन्थके विपयसे परिचित हो सकें । फिर भी उनका स्पष्टीकरण करनेके लिये उक्त अधिकारोंकी रचना की गई है। इसका पर्यालोचन करने से संदृष्टि-विषयक सभी बातोंका बोध हो जाता है | हिन्दी भाषा के अभ्यासी त्वाध्याय- प्रेमी सज्जन भी इससे बराबर लाभ उठाते रहे हैं । आपकी इन
ही दिगम्बर समाजमें कर्मसिद्धान्त के पठा पाटनका प्रचार बढा है और इनके स्वाध्यायी सज्जन कर्मे सिद्वान्त से अच्छे परिचित देखे जाते हैं। इस सबका श्रेय पं० टोडरमल्ल जीको ही प्राप्त है।
आत्मानुशासन टाका
इसका निर्माण कब किया गया यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका ।
मोक्षमार्गप्रकाशक
यह ग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण है जिसकी जोड़का इतना प्रांजल और धार्मिक - विवेचनापूर्ण दूसरा हिन्दी गद्यन्थ अभी तक देखनेमें नहीं आया। इसमें
यह उनकी अन्तिम कृति जान पड़ती है। यही कारण है कि यह अपूर्ण रह गयी । यदि आयुवश वे
जीवित रहते तो वे अवश्य पूरी करते। बादको यह टीका श्रीरतन चन्दजी दीवानकी प्रेरणा से पण्डित' दौलतराम जीने सं० १८२७ में पूरी की है; परन्तु उनसे उसका वैसा निर्वाह नहीं हो सका है, फिर भी उसका अधूरापन तो दूर हो ही गया है। कृतियों का रचनाकाल सं० १=११ से १८१८ तक तो निश्चित ही है। फिर इसके बाद और कितने समय तक चला, यद्यपि यह अनिश्चित है, परन्तु फिर भी सं० १८२४ के पूर्व तक उसकी सीमा जरूर है। पं० टोडरमल्लजीकी ये सब रचनाएं जयपुर नरेश माधवसिहजी प्रथमके राज्यकाल में रची गई हैं । जयपुर नरेश माधवसिंह प्रथमका राज्य वि० सं० १८९१ से १=२४ तक निश्चित माना जाता है । पं दौलतरामजीने जब सं० १८२७ मे पुरुषार्थसिद्ध्युपायी अधूरी टीकाको प्रण किया तब जयपुर मे राजा पृथ्वीसिका राज्य था । अतएव संवत् १८२७ से पहले ही माधवसिहका राज्य करना सुनिश्चित है । पंडितजी की मृत्यु और समय
पंडितजीको मृत्यु कब और कैसे हुई यह विषय अर्से से एक पहेलीसा बना हुआ है। जैन समाज में इस सम्बन्धमें कई प्रकारकी किंवदन्तियां प्रचलित हैं।
* देखो, 'भारत के प्राचान राजवंश' भाग ३ पृ० २३६ २४०॥