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________________ ३० ] अनेकान्त । वर्ष - "पीठे सेखावटीवियु सिंघाणा ना तहां टोडर- हजार टीका भई। पीछे सवाई जयपुर आये तहां मल्लजी एक दिली (ल्ली) का बड़ा साहूकार साधर्मी गोम्मटसारादिच्यारों प्रथोंकू सोधि याको बहुत प्रति ताके समीप कर्म-कार्यके अर्थि वहां रहे, तहां हम गए उतराई। जहां सैली थी तहां तहां सुधाइ सुधाइ पधराई अर टोडरमल्लजीसे मिले, नाना प्रकारके प्रश्न ऐसे या ग्रंथांका अवतार भया"। किये । ताका उत्तर एक गोम्मटसार नामा ग्रंथको इस पत्रिकागत विवरण परसे यह स्पष्ट है कि साखिसू देते गए। ता ग्रन्थकी महिमा हम पूर्व मणी उक्त सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकाटीका तीन वषमें बनकर थी तासूविशेष देखी, अर टोडरमल्लजीका (के) ज्ञानकी समाप्त हुई थी जिसकी श्लोक संख्या पैसठ हजारके महिमा अद्भुत देखी, पीछे उनसू हम बही-तुम्हारै करीब है । और जिसके संशोधनादि तथा अन्य प्रतिया ग्रंथका परचै निमल भया है, तुमकरि याकी योंके उतरवाने में प्राय: उतनाही समय लगा होगा। भापाटीका होय तौ घणां जीवांका कल्याण होय श्रर इसीसे यह टीका सं० १८१८ में समाप्त हुई है। इस जिनधर्मका उद्योत होइ। अबहीं कालके दोष करि टीकाके पूर्ण होने पर पण्डितजी बहत आल्हादित जीवांकी बुद्धी तुच्छ रही है तौ श्रागै यातै भी अल्प हुए और उन्होंने अपनेको कृतकृत्य सममा। साथ रहेगी। तातै ऐसा महान ग्रंथ पराक्रत साकी मूल गाथा । ही अन्तिम मङ्गलके रूपमें पञ्चपरमेष्ठीकी स्तुति की और पंद्रहस+ १५०० ताकी टीका संस्कृत अठारह हज़ार उन जैसी अपनी दशाके होनेकी अभिलाषा भी व्यक्त १८०८० ताविर्षे अलौकिक चरचाका समूह संदृष्टि वा की१ । यथागणित शास्त्रांकी आम्नाय संयुक्त लिख्या है ताकी भाव आरंभो पूरण भयो शास्त्र सुखद प्रासाद । अब भये कृतकृत्य हम पायो अति पाल्हाद ।। भासना महा कठिन है। अर याके ज्ञानकी प्रवर्ति पूर्व + + + + + + दीर्घकाल पर्यत लगाय अब ताई नाहीं तो आग भी अरहन्त सिद्ध सूर उपाध्याय साधु सर्व, याकी प्रवर्ती कैसे रहेगी, तात तुम या ग्रंथकी टीका अथके प्रकाशी मङ्गलीक उपकारी हैं। करनेका उपाय शीघ्र करौ, आयुका भरोसा है नाहीं। तिनको स्वरूप जानि रागत भई भक्ति. पी ऐसें हमारे प्रेरकपणाका निमित्त करि इनके टीका कायकों नमाय स्तुतिको उचारी है। करने का अनुराग भया। पूर्व भी याकी टीका करने धन्य धन्य तुमही सब काज भयो, का इनका मनोरथ था ही, पाछै हमारे कहने करि विशेष कर जोरि बारम्बार बंदना हमारी है। मनोरथ भया, तब शुभदिन मुहूरत विर्षे दीका करने मङ्गल कल्याण सुग्व ऐसो हम चाहत हैं, का प्रारम्भ सिघाणा नग्रवि भया । सो वे तो टीका होह मेरी ऐसी दशा जैसी तुम धारी है। वणावते गए हम बांचते गये। बरस तीनमें गोम्मट यही भाव लब्धिसारटीका प्रशस्तिमें गद्यरूपमें सारपथको अडनीसहजार ३८००० लब्धिमार-क्षप- प्रकट किया है। णासारथकी तेरहहजार १३००० त्रिलोकसारग्रंथ लब्धिसारकी टीका वि०सं०१८१८ की माघशुक्ला की चौदाहजार १४००० सब मिलिच्यारि प्रथांकी पैसठ --- १ "प्रारम्भ कार्यकी मिद्धि होने करि हम आपको __+ रायमल्लजीने गोम्मटमारकी मूल गाथा मंख्या पंद्रह कृतकृत्य मानि इम कार्य करनेकी याकुलता रहित होइ मुग्नी सौ १५०० बतलाई है जब कि उमकी संख्या मत्तरट्मौ पाच भये, याक प्रमादने सर्व प्राकुलता दर होइ हमार शीघ्र ही १७७५ है, गोमटमार कर्मकाण्डकी ६७२ और जीत काडकी स्वात्मज मिद्धि-जनित परमानन्दकी प्राप्ति होउ।" ७३३ गापा मख्या मृद्रिा प्रतियाम पाई जाती है। लगिमारटी प्रशलि
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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