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किरण १० ]
भारतीय इतिहासमें अहिसा
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पाँच महाव्रतोके मूलमें अहिंसा ही निहित ममझना हत्या पर घृणाके गीत लिखे जा रहे थे और दूसरी चाहिए।
ओर-जीवनमें गहरी और विषाक्त आसक्ति बढ़ 'अहिसा' से न केवल भारतीयांका जीवन ही रही थी। जिस तरह राजपूतोंकी वीरता-प्रेम एवं संस्कृत हुा अपितु-उसके स्थापत्य, ललितकला भोग-विलासमे निखर रही थी उसी तरह-अहि
और वाङ्गमयपर भी उसकी अमिट छाप पड़ी। मौर्य- सकोकी अहिंसा जीवतन्तुओंको बचाती हुईकालसे गाँधीयुग तक जितना जो भी विकास. कलादिका मनुष्यका शोषण कर रही थी। अंग्रेजांकी शासनहुश्रा उममें भारतीयोंकी सहज सुकुमार वृत्तियों और छायाम दानोंके लिए छूट थी। एक ओर-कालीके भावोकी ही अभिव्यक्ति हुई है। कुछ स्थल और मन्दिरोमे बलिकी स्वतन्त्रता थी और दूसरी ओर देवस्थान अवश्य ऐसे है जहाँ अभी भी धार्मिक जैनियोके अहिमा चरणमें किसी प्रकारकी बाधा न हत्या हाती पर नगण्यम्पमे। भारतमे वस्तुतः आए इसका भी सुप्रबन्ध था। जैनी चतुर्दशीको हरा
आज अहिंमाका भाव इतना उग्र है कि कट्टरसे कट्टर शाक नहीं खा सकता परन्तु परोकी टोपी और विदेशी सनातनी भी अश्वमेधी वात भी नहीं कर सकता ? चमड़ेके जूते पहन सकता है ? फिर भी वहअनुव्रती है ? क्यो, कारण स्पष्ट है विश्वशान्तिके नामपर जा कुछ एक मारवाडी वैष्णव, एक बार पिजरापोल खोलकर यश अभी हालमे हुए- उनका शाकल्य एकदम अपनी दयाका प्रदर्शन करता है और दूसरी ओरमात्विक था । आरम्भमे भारतीय जीवन कितना कलकत्ता. बम्बई एवं अहमदाबादम शाषितांको हड़ियांअमंस्कृत था. इसकी कल्पना भी इस युगमे नही की पर बड़ी हलियाँ बरी करता है ? प्रश्न उठता है जा मकती, कोई भी ममाज धीर संस्कृत होता है। कि जीवनमे यह अमङ्गति-कयो ? जिम देशमे मनुष्योंश्राज गा-हत्या बहुत बड़ा पाप है. परन्तु पुराने- की इतनी दुर्दशा हो, वहाँ 'अहिमा के इस प्रदर्शनका समयमे वह आम रिवाज था। उत्तररामचरित' में क्या मूल्य ? क्या भारतीय अहिसा मनुष्यके प्रति प्रेम जब 'विश्वामित्र' आश्रममे पहुँच तो उनके स्वागतमे करना नहीं सिखाती ? जिस देशके पूर्वजोने चीन और एक बलियाका वध किया गया। 'भवभूति' ने इस जापानकी कर हिसक जातियोको भी अहिंसाका पाठ क्रिया के लिए-मिड़ामड़ायता' शब्दका प्रयोग किया दिया जिम महादेशने बुद्ध जैसे अहिंसाके पुजारीको है। कलकत्तेकी काली या इस प्रकारका अन्य प्राकृत उत्पन्न किया जो आज श्राधसे अधिक विश्वका पूज्य देवियाका छोड़कर, शेष हिन्दू देवता अब अहिमक है, जिन्होंने अहिंमाके तत्त्वज्ञानको मुक्तिके चरमविंदु उपासनासे ही मन्तुष्ट हात है? हिन्द सन्ता. तक पहुंचाया उम देशके मनुष्य दुनिया मबर्म वेदान्तियों और वैष्णवोंने इस बारेमें अकथनीय प्रयत्न अधिक दरिद्र दान और पीड़ित हों. यह बात महमा किए। विभिन्न विचारधाराप्रोके रहत हए भी हिसा- ममझमे नहीं पानी ? अहिंसा और हिंसाका जो के प्रति सभी धर्मोकी आस्था है।
मंघर्ष वैदिकयुगमे शुरू हुआ था इसमें संदेह नहीं इस प्रकार इतिहासकी गतिके साथ जहां अहिसा उसमे अहिमाका विजय हुई। परन्तु अब हिंमा भारतीय जीवनधारामें स्पन्दित हो रही थी. वहाँ दृमर रूपमे अपना प्रभाव बढ़ा रही है? उसमे कुछ रूढ़ियाँ भी श्रा चलीं। सिद्धान्त जब तक गाँधीजीने उम प्रभावको ममझ लिया था और गतिशील रहते है तभी तक वे हमार जीवनको उसके उपचारका भी उन्होंने जतन किया था। अपने सुसंस्कृत और स्वस्थ बना सकते है पर जब उसमे जीवनमे उन्होंने जा काम किया वह यह कि अहिसा जड़ता था जाता है तो सहसा चट्टानकी तरह हमारे का रूढ़ियांसे मुक्तकर जीवनमे प्रतिष्ठित किया: विकासका रोक देते हैं। मध्ययुगमे अहिमाम इस गाँधीजीकी अहिसाकी जितनी बालोचना हुई. उतनी प्रकारकी स्थिरता आई। एक और 'भाखा' में 'जीव- शायद ही विश्व-इतिहासम किमी सिद्धान्तकी हुई हो।