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जब अपने में स्थित चैतन्यका अनुभव किया होगा तभी उसके मनमें दूसरे प्राणियोंके प्रति ममताका भाव जमा होगा ? किन्तु मानव जातिके इतिहासमें अनुभूत भी बुद्धिका विषय बनती रही है ? भगवान् बुद्ध सामने जब दार्शनिक प्रश्न आए तो उन्होने मौन रहना ही श्र ेष्ठ समझा । उन्होने विश्वमैत्री. ममता और सदाचारका जो भी उपदेश किया वह अनुभूतिसे ही उद्भूत था. परन्तु श्रागे चलकर - उस अनुभूतिकी जो छानवीन हुई— उसने उनके धर्मको दर्शनकी अनेक धाराओ में बॉट दिया। 'अहिंसा' की भी यही गत हुई। पं० आशाधर' (१३वीं सदी) के समय मॉस भक्षण' करना चाहिए या नहीं, आदि तार्किक प्रश्न पूछे जाते थे । उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सागार धर्मामृतमें ऐसे ही प्रश्नांका बहुत ही कटु उत्तर दिया है । किमीने तर्क उपस्थित किया कि प्राणीका अङ्ग होनेसे माँस भी भक्षणीय है; जैसे गेहूँ आदि ! इसपर आशाधरजीने उत्तर दिया है- प्राणीका अङ्ग हानेसे ही प्रत्येक चीज भक्षणीय नहीं होजाती ! क्योंकि स्त्रीत्व रहनेपर भी पत्नी ही भाग्य है न कि माता ? तो फिर इसका निर्णय कैसे हो; साफ है कि विवेक-बुद्धि ? हमे स्वयं सोचना होगा कि व्यवहार मे कैसा आचरण अहिमा - हो सकता है ? सम्भवतः इसके विवेचन के लिये और व्यवहार में हिसाको खा करनेके लिये उसमे भेद कल्पित हुए ! आखिर खण्डरूप में ही कोई सिद्धान्त जनता के जीवनतक पहुँच सकता है ?
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जाता ? विरोधी और आरम्भ-सम्बन्धी हिंसा इसलिये अनिवार्य है; क्योंकि गृहस्थका सांसारिक उत्तरदायित्वके लिये वह आवश्यक है ? अहिंसाका यह संतुलितरूप ही एक ओर युद्धमे हत्याका विधान करता है और दूसरी ओर जलगालन का उपदेश करता है । वैदीययुगमें जैन- गृहस्थके आचार-विचारमें जो अहिंसक बारीकियों दीख पड़ती है, वे आज भी ज्योकी त्यां है; उनके इस आचार-विचारको देखकर, सहस्रो लांग जैन-धर्मकी अहिंसाको अव्यवहार्य समझने लगते है ? इसमें सन्देह नहीं कि शास्त्रोंके रूढ़िवादी अध्ययनसे गृहस्थोंमें बहुत-सा मुनिधर्म प्रवेश पा गया है ! व्यक्तिकी दृष्टिसे चाहे यह कितनी ही उच्चकोटि की साधना हो, परन्तु समाजकी दृष्टिसे वह किसी कामकी नही । इसमें व्यर्थ अहङ्कारकी पुष्टि होती. पर व्यक्तिकी आलोचना सिद्धान्तकी आलो चना नही है ।
श्रहिंसाका सम्पूर्ण आचरण गृहस्थोके लिये असम्भव है, इसलिये उन्हें संकल्पी - हिंसासे बचनेका प्रयत्न करना चाहिए ! इसका आशय यह है कि वह संकल्प करके दूसरोको हानि पहुंचानेकी चेष्टा न करेगा. परन्तु साथमे उसका जीवन इतना मरल और आडम्बर शून्य होना चाहिए कि जिससे अप्रत्यक्षरूप से भी वह अपने लिये दूसरोंके हित न छीनें । यदि वह अपने भोग-विलासका अधिक विस्तार करता है तो निश्चित है कि उसके लिये अधिक विरोधी और आरम्भी - हिंसा करना पड़ेगी ? और ऐसे व्यक्तिके लिये - संकल्पी अहिंसाका कोई मूल्य नहीं रह
सर्वभूत दयाका भाव सभी धर्मो में अच्छा कहा गया है । इसलिये वे हिंसा, झूठ, चोरी, दुःशील और परिग्रहसे बचनेका उपदेश करते है, या इस उपदेशमे भी अहिंसाका भाव दिया हुआ है और इसका सङ्गांत तभी ठीक बैठ सकती है जब अहिसाका सम्बन्ध श्रात्मासे माना जाय । झूठ बोलना, चोरी करना और परस्त्रीगमन करना क्यो बुरा है ? जबकि देखा गया है कि उससे मनुष्यको एक प्रकारका सुख सन्तोष मिलता है । इस सुख-सन्तोषसे आत्माको वचित करना उसे दुख पहुँचाना है; और यह हिंसा ही है ? यदि हम आत्माको पकड़कर चले तो सहजमे इस प्रश्न का उत्तर मिल जायगा । हम स्वयं अनुभव करते हैं कि झूठ चारीसे जा सुख मिलता है वह क्षणिक है । क्षणिक ही नहीं, दूसरे क्षणमे दुखदायी भी है। क्यों ? वह आत्माके व्यक्तित्वका हनन करता है । वह सुख नही. सुखाभास है । आत्मा स्वयं अच्छे-बुरे कार्यका निर्णायक है. और यही वह श्रात्म- न्याय है जिससे पापी व्यक्ति, क़ानून और समाजसे बचकर भी श्रात्मग्लानिमें गलता रहता है। जैन - वाङ्गमय मे पाँच पापोके मूल में हिंसा' को ही बताया गया है. इसलिये