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नाम बराबर दिया हुआ है, फिर यही उससे शून्य रही हो यह कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। अतः जरूरत इस बातकी है कि द्वात्रिशिका-विषयक प्राचीन प्रतियों की पूरी खोज की जाय। इससे अनुपलब्ध द्वात्रिंशिकाएँ भी यदि कोई होंगी तो उपलब्ध हो सकेंगी और उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओंसे वे अशुद्धियाँ भी दूर हो सकेंगी जिनके कारण उनका पठन-पाठन कठिन हो रहा है और जिसकी पं० सुखलालजी आदिको मी भारी शिकायत है।
दूसरी बात यह कि द्वात्रिशिकाओंको स्तुतियाँ कहा गया है। और इनके अवतारका प्रसङ्ग भी स्तुति-विषयका ही है; क्योंकि श्वेताम्बरीय प्रबन्धोके अनुसार विक्रमादित्य राजा की ओरसे शिवलिङ्गको नमस्कार करनेका अनुरोध होनेपर जब सिद्धसेनाचार्यने कहा कि यह देवता मेरा नमस्कार सहन करनेमें समर्थ नहीं है-मेरा नमस्कार सहन करनेवाले दूसरे ही देवता हैं-तब राजाने कौतुकवश, परिणामकी कोई पर्वाह न करते हुए नमस्कारके लिये विशेष आग्रह किया। इसपर सिद्धसेन शिवलिङ्गके सामने प्रासन जमाकर बैठ गये
और इन्होंने अपने इष्टदेवकी स्तुति उच्चस्वर आदिके साथ प्रारम्भ कर दी; जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
" श्रुत्वेति पुनरासीनः शिवलिङ्गस्य स प्रभुः । * उदाजहे स्तुतिश्लोकान् तारस्वरकरस्तदा ॥१३८॥" -प्रभा० च० "ततः पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाभिर्देवं स्तुतिमुपचक्रमे ।"
-विविधतीर्थकल्प, प्रबन्धकोश । परन्तु उपलब्ध २१ द्वात्रिंशिकाओंमें स्तुतिपरक द्वात्रिंशिकाएँ केवल सात ही हैं. जिनमें भी एक राजाकी स्तुति होनेसे देवताविषयक स्तुतियोंकी कोटिसे निकल जाती है
और इस तरह छह द्वात्रिशिकाएँ ही ऐसी रह जाती हैं जिनका श्रीरवीरवर्द्धमानकी स्तुतिसे सम्बन्ध है और जो उस अवसरपर उच्चरित कही जा सकती हैं-शेष १४ द्वात्रिंशिकाएँ न तो स्तुति-विषयक हैं, न उक्त प्रसङ्गके योग्य हैं और इसलिये उनकी गणना उन द्वात्रिंशिकाओं में नहीं की जा सकती जिनकी रचना अथवा उच्चारणा सिद्धसेनने शिवलिङ्गके सामने बैठ कर की थी।
यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि प्रभावकचरितके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यग्जगत्त्रयं ।” इत्यादि श्लोकोंसे हुआ है, जिनमेंसे "तथा हि" शब्दके साथ चार श्लोकोको' उद्धृत करके उनके आगे "इत्यादि लिखा गया १ "सिद्धसेणेण पारद्धा बत्तीसियाहि जिणथुई" x x -(गद्यप्रबन्ध-कथावली) "तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिण्थुई समत्ताहिं । बत्तीसाहिं बत्तीसियाहिं उद्दामसद्दण ॥"
-(पद्यप्रबन्ध; स०प्र० पृ०५६) "न्यायावतारसूत्रं च श्रीवीरस्तुतिमप्यथ । द्वात्रिंशच्छलोकमानाश्च त्रिशदन्याः स्तुतीरपि ॥ १४३ ।।"
-प्रभावकचरित २ ये मत्प्रणामसोदारस्ते देवा अपरे ननु । किं भावि प्रथम त्वं द्राक् प्राह राजेति कौतुकी ॥ १३५ ॥
देवानिजप्रणम्यांश्च दर्शय त्वं वदनिति । भूपतिर्जल्पितस्तेनोत्पाते दोषो न मे नृप ॥ १३६ ।। ३ चारों श्लोक इस प्रकार हैं:
प्रकाशितं त्वयैकेन यथा सम्यग्जगत्त्रयम् । समस्तैरपि नो नाथ ! वरतीर्थाधिपैस्तथा ॥ १३९ ।। विद्योतयति वा लोकं यथैकोऽपि निशाकरः। समुद्गतः समयोऽपि तथा कि तारकागणः॥ १४०॥ - ----- A m
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