________________
अनेकान्त
। वर्ष
ऐसेही स्वार्थी धर्मभेषिोंको बहकाकर सम्प्रदा- हम पूछते हैं जब पागलोंको पागलखाने और यवादके नाम पर शासनसत्ता अपने हाथमें लेनेका संक्रामक रोगियोंको तुरन्त एकान्त स्थानमें भेज दिया अधम प्रयत्न कर रहे हैं। प्रान्तवादका यह हाल है कि जाता है, फिर इन सांघातिक धर्मोन्मादकों, मजहवी १-२ प्रान्तोंको छोरकर प्रायः सभी प्रान्त वाले एक- दीवानों और सम्प्रदायवादियों को कारावास क्यों नहीं दूसरेको घृणा करने लगे हैं। प्रान्तीय सुविधाएँ और भेजा जाता? जो मानव अपने देश, धर्म, समाज नोकरियां अन्य प्रान्तीय न लेने पाएँ। इसके लिये और वंशके लिये अभिशाप होने जा रहा है, उसकी प्रयत्न प्रारम्भ हो गये हैं। जातीयवादका यह हाल है क्यों नहीं शीघ्रसे शीघ्र चिकित्सा कराई जातो? कि कुछ लोग महाराष्ट्र साम्राज्यका दुःस्वप्न देख रहे जिन्हाकी धर्मान्धताके कारण मुसलमानोंको कैसी है । कुछ जाटि तान, कुछ सिक्खस्तान और कुछ दुर्गति हुई गोडसे के कारण हिन्दुसभा, राष्ट्रीयसङ्घ, अयूतस्तान बनाने के काल्पनिक घोड़े दौड़ा रहे हैं। महागणप्रान्त, महाराष्ट्रीय ब्राह्मणोंको कितना कलङ्कित हर कोई अपनी डेढ़ चावलकी खिचड़ी अलग-अलग होना पड़ा. उनपर कैसी आपदाएं आई और ईसाके पका रहा है। परिणाम इसका यह होरहा है कि भारत घातक यहूदी आज किस जघन्य दृष्टिस देखे जाते हैं, स्वतन्त्र होकर उत्तरोत्तर उन्नत और बलवान होनेके बताने की आवश्यकता नहीं। अत: हमें अपनी बजाय अवनत और निर्बल होता जा रहा है। समाजमें सम्प्रदायवादका प्रवेश प्राणपणसे रोकना
सम्प्रदायवाद के नामपर भारत में जो इन दिनों चाहये। हम भगवान महावीरके अहिंसा, सत्य, नरमेधयज्ञ हा है-यदि उसके नर-कवालोंको अपरिग्रहत्व और विश्वबन्धुत्वके प्रसार के लिये सम्प्रएकत्र करके हिमालय के समक्ष रखा जाय तो वह भी दायवादके दल-दलमें न फंसकर अनेकान्त-ध्वजा अपनी हीनतापर रो उठेगा। इस सम्प्रदायवाद के फहरायेंगे। आज अनेकान्ती बन्धुओंको साख्यवाद, विषाक्त कीटाण अब इतने रक्त पिपास हो गये हैं कि शैववाद, नैयायिकवाद, चार्वाकवादसे लोहा नही अन्य सम्प्रदायोंका रक्त न मिलनेपर अपने ही सम्प्र- लेना है। उसे विश्व में फैले, सम्प्रदायवाद, जातीयदायका रक्त पोन लगे हैं। महात्मा गान्धी इसी वाद, प्रान्तवाद, गुरुडमवाद, परिप्रवादसे संघप घिनोने सम्प्रदायको वेदीपर बलि चढ़ा दिये गये हैं। करना है।
और न जाने कितने नररत्न श्रेष्ठोंको तालिका अभी ४-हिन्द और जन-- बाकी हैं।
हमारी समाजके ख्यातिप्राप्त विद्वान डाक्टरहीरा"घोड़ेके नाल जड़तो देखकर मेड़कीने भी नाल लालजीका उक्त शोषकसे जैनपत्रों में लेख प्रकाशित हुआ जड़वाई" यानी; परन्तु इन विपेले कीटाणुओंका है! जैन अपनेको हिन्दू कहे या नहीं ? यदि नहीं घातक प्रभाव हमारी समाजके भी कतिपय बन्धुओं- कहें तो हिन्दुओंको मिलने वाली सुविधाओंसे सम्भवपर हुआ है। जिसके कारण वे तो नष्ट होंगे ही, पर तया जैन बंचित कर दिये जाएंगे । और बहिष्कारको मालूम होता है कि जिस नांवमें वे बैठे हैं उसे भी ले भी सम्भावना है। यही इस लेखका सार है। जो भय दूबनेका इरादा रखते है।
और चिन्ता डाक्टर साहबको है, वही चिन्ता और वेतो दूबेंगे सनम हमको भी ले इबगे। भय प्रायः सभी समाज-हितेपियोंको खुरच खुरचकर
सम्प्रदायवाद जब असाध्य हो जाता है तब रोगी खाये जा रहा है। और अब वह समय आगया है सन्निपातसे पीड़ित धर्मोन्मादावस्थामें बहकने लगता कि हम इस ओर अब अधिक उपेक्षा नहीं कर सकते। है-"हमारा धर्म भिन्न, संस्कृति भिन्न. आचार भिन्न, शिकारीके भयसे आंख बन्द कर लेने या रेतेमें गर्दन व्यवहार भिन्न, कानून भिन्न और अधिकार भिन्न हैं। छिपा लेनेसे विपत्ति कम न होकर बढेगी ही। हम सबसे भिन्न विशेष अधिकारों के पात्र हैं।"
जिस सिन्धु नदीके कारण भारत हिन्द कहलाया,