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और यशीयहिंसा में थी । महावीरने इन्हीं निर्बलताओं का सामना किया। क्योंकि उनकी धर्मचेतना अपने आसपास प्रवृत्त अन्यायको सह न सकती थी । इसी करुणावृत्तिने उन्हे अपरिग्रही बनाया । अपरिग्रह भी ऐसा कि जिसमें न घर-बार और न वस्त्रपात्र । इसी करुणावृत्तिने उन्हें दलित- पतितका उद्धार करनेका प्रेरित किया । यह तो हुआ महावीर की धर्मचेतनाका स्पंदन |
पर उनके बाद यह स्पंदन जरूर मन्द हुआ और धर्मनाक पोषक धर्म कलेवर बहुत बढ़ने लगा. बढ़ते-बढ़ते उस कलेवरका कद और वजन इतना बढ़ा कि कलेवर की पुष्टी और बृद्धिके साथ ही चेतना का स्पंदन मन्द होने लगा। जैसे पानी सूखते ही या कम होते ही नीचे की मिट्टी में दरारें पड़ती हैं और मिट्टी एक रूप न रह कर विभक्त हो जाती है वैसे ही जैन परम्पराका धर्मकलेवर भी अनेक टुकडो में farक्त हुआ और वे टुकड़े चेतनास्पंदनके मिथ्या अभिमान से प्रेरित होकर आपसमें ही लड़ने-झगडने लगे । जो धर्मचेतनाके स्पंदनका मुख्य काम था वह गौण होगया और धर्मचेतना की रक्षाके नामपर वे मुख्यतया गुजारा करने लगे ।
अनेकान्त
[ वर्ष
मालूम होते रहे; पर अपरिग्रहका प्राण उनमें कमसे कम रहा । इसीलिये सभी फिरकोके त्यागी अपरिग्रह व्रत की दुहाई देकर नंगे पाँवसे चलते देखे जाते हैं लूंचन रूपसे बाल तक हाथसे खींच डालते हैं, निर्वसन भाव भी धारण करते देखे जाते हैं. सूक्ष्मजन्तु की रक्षा के निमित्त मुहपर कपडा तक रख लेते हैं. पर वे अपरिग्रहके पालनके लिये अनिवार्य रूपसे आवश्यक ऐसा स्वावलम्बी जीवन करीब-करीब गँवा बैठे हैं। उन्हे अपरिग्रहका पालन गृहस्थों की मदद के सिवाय सम्भव नहीं दीखता । फलतः वे अधिकाधिक पर-परिश्रमावलम्बी होगये है ।
धर्म-कलेवरके फिरकोंमें धर्मचेतना कम होते ही आसपासके विरोधी बलोंने उनके ऊपर बुरा असर डाला। सभी फिरके मुख्य उद्देश्यके बारेमें इतने निर्बल साबित हुए कि कोई अपने पूज्य पुरुष महावीर की प्रवृत्तिको योग्य रूपमें आगे न बढ़ा सके । स्त्री उद्धार की बात करते हुए भी वे स्त्रीके अबलापनके पोषक ही रहे । उच्च-नीच भाव और छुआछूत के दूर करने की बात करते हुए भी वे जातिवादी ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव से बच न मके और व्यवहार तथा धर्मक्षेत्र में उच्च-नीच भाव और छुआछूतपनेके शिकार बन गये । यज्ञीयहिंसा के प्रभावसे वे जरूर बच गये और पशु-पक्षी की रक्षामें उन्होंने हाथ ठीक ठीक बटाया; पर वे अपरिग्रहके प्राण मूर्द्धात्यागको गँवा बैठे। देखनेमे तो सभी फिरके अपरिग्रही
बेशक. पिछले ढाई हजार वर्षोंमें देशके विभिन्न भागों में ऐसे इने-गिने अनागार त्यागी और सागार गृहस्थ अवश्य हुए है जिन्होंने जैन परम्परा की मूर्छित-सी धर्मचतनामें स्पंदनके प्राण फूंके । पर एक तो वह स्पंदन साम्प्रदायिक ढङ्गका था जैसा कि अन्य सभी सम्प्रदायोमे हुआ है, और दूसरे वह स्पंदन ऐसी कोई दृढ़ नीवपर न था जिससे चिरकाल तक टिक सके। इसलिये बीच बीचमे प्रकट हुए धर्मचेतना के स्पंदन अर्थात प्रभावन कार्य सतत चालू रह न सके ।
पिछली शताब्दीमे तो जैन समाजके त्यागी और गृहस्थ दोनोंकी मनोदशा विलक्षण-सी होगई थी वे परम्पराप्राप्त सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहके आदर्श संस्कार की महिमाको छोड़ भी न सके थे और जीवनपर्यन्तमे व हिसा, असत्य और परिग्रह के संस्कारां काही समर्थन करते जाते थे। ऐसा माना जाने लगा था कि कुटुम्ब, समाज. ग्राम, राष्ट्र आदिसे सन्त्रन्ध रखने वाली प्रवृत्तियाँ सासारिक है. दुनियावी है, अव्यवहारिक है । इसलिये ऐसी आर्थिक औद्योगिक और राजकीय प्रवृत्तियों में न तो सत्य साथ दे सकता है. न अहिंसा काम कर सकती है और न अपरिग्रहात ही कार्यसाधक बन सकता है । य धर्म सिद्धान्त मच्चे हैं सही, पर इनका शुद्ध पालन दुनिया के बीच संभव नहीं। इसके लिये तो एकान्त बनवास