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किरण १० ]
और संसार त्याग ही चाहिये । इस विचारने अनगार त्यागियोंके मनपर भी ऐसा प्रभाव जमाया था कि वे रात दिन सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहका उपदेश करते हुए भी दुनियावी - जीबनमें उन उपदेशों के सच्चे पालनका कोई रास्ता दिखा न सकते थे। वे थक कर यही कहते थे कि अगर सच्चा धर्म पालन करना हो तो तुम लोग घर छोड़ो. कुटुम्ब समाज और राष्ट्रकी जबाबदेही छोड़ो ऐसी जवाबदेही और सत्यअहिसा अपरिग्रहका शुद्ध पालन दोनों एक साथ सम्भव नहीं । ऐसी मनोदशाके कारण त्यागी गण देखनेमे अवश्य अनगार था. पर उसका जीवन तत्त्वदृष्टिसे किसी भी प्रकार अगारी गृहस्थो की अपेक्षा विशेष उन्नत या विशेष शुद्ध बनने न पाया था। इसलिये जैन समाज की स्थिति ऐसी होगई थी कि हजारोंकी संख्या में साधु-साध्वियोके सतत हात रहनेपर भी समाजके उत्थानका कोई सच्चा काम हो पाता था और अनुयायी गृहस्थवर्ग तो साधुसाध्वियोके भरोसे रहनेका इतना आदि हो गया था कि वह हरएक बातमें निकम्मी प्रथाका त्याग सुधार परिवर्तन वगैरह करनेमे अपनी बुद्धि और साहम ही गंवा बैठा था। त्यागीवर्ग कहता था कि हम क्या करें ? यह काम तो गृहस्थोंका है। गृहस्थ कहते थे कि हमारे सिरमौर गुरु है । वे महावीरके प्रतिनिधि हैं. शास्त्रज्ञ है, वे हमसे अधिक जान सकते है. उनके सुझाव और उनकी सम्मतिके बिना हम कर ही क्या सकत है ? गृहस्थांका असर ही क्या पड़ेगा ? साधुओंके कथनको सब लोग मान सकते हैं इत्यादि । इस तरह अन्य धर्म समाजो की तरह जैन समाजकी नैया भी हर एक क्षेत्रमे उलझनोंकी भँवर में फँसी थी ।
गाँधीजीकी जैन धर्मको देन
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जैन समाजके अपने निजी भी प्रश्न थे। जो उलझनों से पूर्ण थे । आपसमें फिरकाबन्दी, धर्मके निमित्त धर्म पोषक झगड़े. निवृत्तिके नामपर निष्क्रियता और ऐदीपन की बाढ़, नई पीढ़ीमें पुरानी चेतनाका विरोध और नई चेतनाका अवरोध, सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह जैसे शाश्वत मूल्य वाले सिद्धान्तोंके प्रति सबकी देखादेखी बढ़ती हुई अश्रद्धा ये जैन समाजकी समस्याएँ थीं ।
सारे राष्ट्रपर पिछली सहस्राब्दीने जो आफतें ढाई थीं और पश्चिमके सम्पर्कके बाद विदेशी राज्यने पिछली दो शताब्दियोंमें गुलामी, शोषण और 'आपसी फूटकी जो आफत बढ़ाई थी उसका शिकार तो जैन समाज शत प्रतिशत था ही. पर उसके अलावा
इस अन्धकार प्रधान रात्रिमें अफ्रिकासे एक कर्मवीर की हलचलने लोगोंकी आँखें खो कर्मवीर फिर अपनी जन्म भूमि भारत भूमिमें पीछे लौटा। आते ही सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहकी निर्भय और गगनभेदी वाणी शान्त-स्वरसे और जीवन-व्यवहारसे सुनाने लगा । पहले तो जैन समाज अपनी संस्कार- च्युतिके कारण चौंका । उसे भय मालूम हुआ कि दुनियाकी प्रवृत्ति या सांसारिक राजकीय प्रवृत्तिके साथ सत्य. श्रहिंसा और अपरिग्रह Marie कैसे बैठ सकता है ? ऐसा हो तो फिर त्याग मार्ग अनगार धर्म जो हजारों वर्षसे चला आता है वह नष्ट ही हो जायगा । पर जैसे-जैसे की ग एकके बाद एक नये-नये सामाजिक और राजकीय क्षेत्रको सर करते गये और देशके उच्चसे उच्च मस्तिष्क भी उनके सामने झुकने लगे। कवीन्द्र रवीन्द्र, लाला लाजपतराय, देशबन्धुदास, मोतीलाल नेहरू श्रादि मुख्य राष्ट्रीय पुरुषोंने गाँधीजीका नेतृत्व मान लिया । वैसे-वैसे जैन समाजकी भी सुपुत और मुद्रिती धमचेतनामे स्पन्दन शुरू हुआ। स्पन्दनकी यह लहर क्रमशः ऐसी बढ़ती और फैलती गई कि जिमने ३५ वर्ष के पहलेकी जैन समाजकी काया ही पलट दी। जिसने ३५ वर्ष के पहलेकी जैन समाजकी बाहरी और भीतरी दशा आँखो देखी है और जिसने पिछले ३५ वर्षोंमें गाँधीजी के कारण जैन समाजमें सत्वर प्रकट होने वाले सात्विक धर्मस्पन्दनोंको देखा है वह यह विना कहे नहीं रह सकता कि जैन समाजकी धर्मचेतना ---जो गॉधीजीकी देन है-वह इतिहास कालमें