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अनेकान्त
[वर्ष ६
अभूतपूर्व है। अब हम संक्षेपमें यह देखें कि गाँधीजी जादूसे स्त्री शक्ति इतनी अधिक प्रकट हुई कि अब तो की यह देन किस रूपमें है।
पुरुष उसे अबला कहनेमें सकुचाने लगा। जैन स्त्रियोंजैन समाजमें जो सत्य और अहिंसाकी सार्वत्रिक के दिलमें भी ऐसा कुछ चमत्कारिक परिवर्तन हुआ कार्यक्षमताके बारेमें अविश्वासकी जड़ जमी थी, कि वे अब अपनेको शक्तिशाली समझकर जबाबदेही गाँधीजीने देशमें आते ही सबसे प्रथम उसपर कुठारा- के छोटे मोटे अनेक काम करने लगी और आमतौरघात किया। जैन लोगोंके दिलमें सत्य और अहिंसाके से जैनसमाजमें यह माना जाने लगा कि जो स्त्री प्रति जन्मसिद्ध श्रादर तो था ही। वे सिर्फ प्रयोग ऐहिक बन्धनोसे मुक्ति पाने में असमर्थ है वह साध्वी करना जानते न थे और न कोई उन्हें प्रयोगके द्वारा बनकर भी पारलौकिक मुक्ति पा नहीं सकती। इस उन सिद्धान्तोंकी शक्ति दिखाने वाला था। गाँधीजीके मान्यासे जैन बहनोंके सूखे और पीले चेहरेपर सुर्सी अहिंसा और सत्यके सफल प्रयोगोने और किसी आ गई और वह देशके कोने कोनेमे जवाबदेहीके समाजकी अपने सबसे पहले जैन समाजका ध्यान अनेक काम सफलतापूर्वक करने लगी। अब उन्हें खींचा। अनेक बूदे तरुण और सभ्य शुरूमें कुतूहल- त्यक्तापन, विधवापन या लाचार कुमारीपनका कोई पश और पीछे लगनीसे गाँधीजीके आसपास इकट्ठे दु:ख नहीं सताता । यह स्त्रीशक्तिका कायापलट है। होने लगे। जैसे जैसे गाँधीजीके अहिंसा और सत्य- यों तो जैन लोग सिद्धान्तरूपसे जाति भेद और छुआके प्रयोग अधिकाधिक समाज और राष्ट्रव्यापी होते छूतको बिल्कुल मानते न थे और इमीमें अपनी गय वैसे वैसे जैन समाजको विरासतमें मिली अहिंसावृत्तिपर अधिकाधिक भरोसा होने लगा और फिर तो व्यापकतौरसे वे अमलम लानेमे असमर्थ थे। गाँधी वह उन्नत मस्तक और प्रसन्नवदनसे कहने लगा कि जीकी प्रायोगिक अंजनशलाकाने जैन समझदारीके 'अहिंसा परमो धर्मः' यह जो जैन परम्पराका मुद्रा- नेत्र खोल दिये और उनमे साहस भर दिया फिर तो लेख है उसीकी यह विजय है। जैन परम्परा स्त्रीकी वे हरिजन या अन्य दलितवगको समान भावसे समानता और मुक्तिका दावा' तो करती ही प्रारही अपनाने लगे। अनेक बूढ़े और युवक स्त्री-पुरुषोंका थी; पर व्यवहारमें उसे उसके अबलापनके सिवाय खास एकवर्ग देशभरके जैन समाजमे ऐसा तैयार कुछ नजर आता न था। उसने मान लिया था कि हो गया है कि वह अब रूढ़िचुस्त मानसकी बिल्कुल त्यक्ता, विधवा और लाचार कुमारीके लिये एकमात्र परवाह बिना किये हरिजन और दलितवर्गकी सेवामें बलप्रद मुक्तिमार्ग साध्वी बननेका है। पर गाँधीजीके या तो पड़ गया है, या उसके लिये अधिकाधिक जादूने यह साबित कर दिया कि अगर स्त्री किसी सहानुभूति पूर्वक सहायता करता है। अपेक्षासे अबला है तो पुरुष भी अबल ही है। अगर जैनसमाज में महिमा एकमात्र त्यागकी रही, पर पुरुषका सबल मान लिया जाय ता बीके अबला कोई त्यागी निवृत्ति और प्रवृत्तिका सुमेल साध न रहते वह सबल बन नही सकता। कई अंशोमे ता सकता था। यह प्रवृत्तिमात्रको निवृत्ति विरोधी समझ पुरुषकी अपेक्षा स्त्रीका बल बहुत है। यह बात गाँधी कर अनिवार्यरूपसे आवश्यक ऐसी प्रवृत्तिका बोझ जीने केवल दलीलोंसे समझाई न थी. पर उनके भी दूसरोके कन्धं डालकर निवृत्तिका मन्तोष अनुभव
करता था। गाँधीजीके जीवनने दिया कि निवृत्ति और १ यह श्वेताम्बर परम्पराकी दाहिसे है।
प्रवृत्ति वस्तुतः परस्पर विरुद्ध नहीं है । जरूरत है तो दिगम्बर-परम्परा स्त्री-मुक्ति नहीं मानती।
दोनोंके रहस्य पानेकी । समय प्रवृत्तिकी मॉग कर रहा -सम्पादक था और निवृत्तिकी भी। मुमेलके बिना दोनो निरर्थक