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किरण १० ]
ही नहीं बल्कि समाज और राष्ट्रघातक सिद्ध हो रहे थे । गाँधीजी के जीवन में निवृत्ति और प्रवृत्तिका ऐसा सुमेल जैनममाजने देखा जैसा गुलाबके फूल और सुवास में। फिर तो मात्र गृहस्थांकी ही नहीं, बल्कि त्यागी अनगारों तककी आँखें खुल गई। उन्हे अब जैन शास्त्रांका असली मम दिखाई दिया या वे शास्त्रोंको नये अर्थ में नये सिरसे देखने लगे। कई त्यागी अपना भिक्षुत्रेष रखकर भी या छोड़कर भी निवृत्ति प्रवृत्तिके गङ्गा-यमुना संगममें स्नान करने श्राये और वे अब भिन्न-भिन्न सेवाक्षेत्रामे पड़कर अपना अनगारपनास अर्थ मे साबित कर रहे है। जैन गृहस्थकी मनोदशामे भी निष्क्रिय निवृत्तिका जो घुन लगा था वह हटा और अनेक बूढ़े जवान निवृत्ति प्रिय जैन स्त्री-पुरुष निष्काम प्रवृत्तिका क्षेत्र पसन्द कर अपनी निवृत्ति-प्रियताको सफल कर रहे है। पहले भिक्षुभिक्षुणियोंके लिये एक ही रास्ता था कि या तो वे वेष धारण करनेके बाद निष्क्रिय बनकर दूसरोकी सेवा लते रहे, या दूसरोकी सेवा करना चाहे तो वे वेप छोडकर प्रति बनकर समाजवाह्य हो जाये । गॉधीजीके नये जीवनके नय अर्थने निष्प्राणसे त्यागी वर्गमे भी धर्मचेतनाका प्राण स्पन्दन किया। अब उसे न तो जरूरत ही रही भिक्षुवेष फेंक देनेकी और न डर रहा अप्रतिष्ठितरूपसे समाजबाह्य होनेका । अब fasara सेवाप्रिय जैन भिक्षुगण के लिए गाँधीजी के जीवनने ऐसा विशाल कार्य-प्रदेश चुन दिया है, जिसमे कोई भी त्यागी निर्दम्भ भावसे त्यागका आस्वाद लेना हुआ समाज और राष्ट्रके लिए आदर्श
बन सकता
गाँधीजी जैन धर्मको देन
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विजय कैसे पाया जा सकता है ? अनेकान्तवाद के हिमायती क्या गृहस्थ क्या त्यागी सभी फिर केबन्दी और गच्छ गणके ऐकान्तिक कदाग्रह और झगड़ेमें फॅसे थे । उन्हें यह पता ही न था कि अनेकान्तका यथार्थ प्रयोग समाज और राष्ट्र की सब प्रवृत्तियों में कैसे सफलतापूर्वक किया जा सकता है ? गाँधीजी तख्तेपर आये और कुटुम्ब, समाज, राष्ट्रकी सब प्रवृत्तियों में अनेकान्तदृष्टिका ऐसा सजीव और सफल प्रयोग करने लगे कि जिससे आकृष्ट होकर समझदार जैनवर्ग यह अन्तःकरणसे महसूस करने लगा कि भङ्गजाल और वादविजयमें तो अनेकान्तका कलेवर ही है। उसकी जान नहीं । जान तो व्यबहारके सब क्षेत्रों में अनेकान्तदृष्टिका प्रयोग करके विरोधी दिखाई देने वाले बलोका संघर्ष मिटाने में ही है ।
जैनपरम्पराको अपने तत्वज्ञान के अनेकान्त सिद्धान्तका बहुत बड़ा गर्व था । वह समझती थी कि ऐसा सिद्धान्त अन्य किसी धर्म परम्पराको नसीब नहीं है; पर खुद जैन परम्परा उस सिद्धान्तका सर्व लोक हितकारक रूपसे प्रयोग करना तो दूर रहा. पर अपने हित में भी उसका प्रयोग करना जानती न थी। वह जाननी थी इतना ही कि उस वादके नाम पर भङ्गजाल कैसे किया जा सकता है और विवादमें
जैन परम्परामे विजय सेठ और विजया सेठानी इस दम्पती युगलके ब्रह्मचर्य की बात है । जिसमें दोनों का साहचर्य और सहजीवन होते हुए भी शुद्ध ब्रह्मचर्य पालनका भाव है। इसी तरह स्थूलिभद्र मुनिके ब्राचर्य की भी कहानी है जिसमें एक मुनिने अपनी पूर्व परिचित वेश्या के सहवासमें रह कर भी विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन किया है। अभी तक ऐसी कहानियाँ लोकोत्तर समझी जाती रहीं। सामान्य जनता यही समझती रही कि कोई दम्पती या स्त्री-पुरुष साथ रह कर विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करे तो वह दैवी चमत्कार जैसा है। पर गॉधीजीके ब्रह्मचर्यवासने इस अति कठिन और लोकोत्तर समझी जाने वाली बातको प्रयत्न साध्य पर इतनी लोकगम्य साबित कर दिया कि आज अनेक दम्पती और स्त्री-पुरुष साथ रह कर विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालन करनेका निर्दम्भ प्रयत्न करते हैं। जैन समाजमें भी ऐसे अनेक युगल मौजूद हैं। अब उन्हें कोई स्थूलिभद्र की कांटिमे नहीं गिनता । हालांकि उनका ब्रह्मचर्य - पुरुषार्थ वैसा ही है। रात्रिभोजन त्याग और उपभोग- परिभोग परिमाण तथा उपवास. श्रायंबिल जैसे व्रत नियम नये युगमें केवल उपहास की दृष्टिसे देखे जाने लगे थे और श्रद्धालु लांग