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________________ ३७४ ] अनेकान्त [ वर्ष : - इन व्रतोंका आचरण करते हुए भी कोई तेजस्विता कारण ही अब जैन समाज अहिंसा, स्त्री-समानता प्रकट न कर सकते थे। उन लोगोंका व्रत-पालन वर्ग-समानता, निवृत्ति और अनेकान्तदृष्टि इत्यादि केवल रूढ़िधर्म-सा दीखता था । मानों उनमें भावप्राण अपने विरासतगत पुराने सिद्धान्तोंको क्रियाशील रहा ही न हो। गाँधीजीने इन्हीं व्रतोमें ऐसा प्राण और सार्थक साबित कर सकता है। ड्का कि आज कोई इनके मखौलका साहस नहीं जैन परम्परामें "ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा कर सकता। गाँधीजीके उपवासके प्रति दुनिया भर नमस्तस्मै" जैसे सर्वधर्मसमन्वयकारी अनेक उद्गार का आदर है। उनके रात्रिभोजनत्याग और इने-गिने मौजूद थे। पर आम तौरसे उसकी धर्मविधि और खाद्य पेयके नियमको पारोग्य और सुभीते की दृष्टि प्राथना बिल्कुल साम्प्रदायिक बन गई थी। उसका से भी लोग उपादेय समझते हैं। हम इस तरह की चौका इतना छोटा बन गया था कि उसमें उक्त अनेक बातें देख सकते हैं जो परम्परासे जैन समाज उद्गारके अनुरूप सब सम्प्रदायोका समावेश दुःसंभव में चिरकालसे चली आती रहनेपर भी तेजोहीन-सी होगया था। पर गाँधीजी की धर्मचेतना ऐसी जागदीखती थीं, पर अब गाँधीजीके जीवनने उन्हें श्राद- रित हुई कि धर्माका बाड़ाबन्दीका स्थान रहा ही नहीं। रास्पद बना दिया है। गाँधीजीकी प्रार्थना जिस्र जैनने देखी सुनी हो वह . कृतज्ञता पूर्वक बिना कबूल किये रह नहीं सकता कि जैनपरम्पराके एक नहीं अनेक सुसंस्कार जो 'ब्रह्मा वा विष्णुर्वा' की उदात्त भावना या 'राम कहो सुप्त या मूर्छित पड़े थे उनको गाँधीजी की धर्मचेतनाने, रहिमान कहां' की अभेद भावना जो जैन परम्परामें स्पंदित किया, गतिशील किया और विकसित भी किया। यही कारण है कि अपेक्षाकृत इस छोटेसे मात्र साहित्यिक वस्तु बन गई थी; उसे गाँधीजीने और विकसित रूपमें सजीव और शाश्वत किया। समाजने भी अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक हम गाँधीजीकी देनको एक-एक करके न तो गिना संख्यक सेवा-भावी स्त्री-पुरुषोंको राष्ट्रके चरणोंपर अर्पित किया है, जिसमें बूढ़े, जवान. स्त्री-पुरुष होन सकते हैं और न ऐसा भी कर सकते है कि गाँधीजी हार तरुण-तरुणी और त्यागी भिक्षु वर्गका भी की अमुक देन तो मात्र जैन-समाजके प्रति ही है और अन्य समाजके प्रति नही । वर्षा होती है तब समावेश होता है। रती । सूर्य चन्द्र प्रकाश फेंकते है तब मानवताके विशाल अर्थमें तो जैन समाज अन्य भी स्थान या व्यक्तिका भेद नहीं करते । तो भी समाजोसे अलग नहीं। फिर भी उसके परम्परागत जिसके घड़े में पानी आया और जिसने प्रकाशका संस्कार अमुक अंशमें इतर समाजोसे जुदे भी है। सुख अनुभव किया, वह तो लौकिक भापामे यही ये संस्कार मात्र धर्म कलेवर बन धर्मचेतनाकी कहंगा.कि वर्षा या चन्द्र सूयने मेरेपर इतना उपभूमिकाको छोड़ बैठे थे । यो तो गाँधीजीने विश्वभरके कार किया। इमी न्यायसे इस जगह गाँधीजीकी देन समस्त सम्प्रदायों की धर्मचेतनाको उत्प्राणित किया का उल्लेख है, न कि उम देनको मर्यादाका । है; पर साम्प्रदायिक दृष्टिसे देखें तो जैन समाजको गाँधी के प्रति अपने ऋणका अंशसे भी तभी मानना चाहिये कि उनके प्रति गॉधीजीकी बहुत बड़ी अदा कर सकत है जब हम उनके निर्दिष्ट मार्गपर और अनेकविध देन है। क्योंकि गाँधीजीकी देन चलनेका दृढ़ संकल्प करे और चले।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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