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गाँधीजीकी जैन-धर्मको देन
(भी पं. सुखलालजी)
धर्मके दो रूप होते हैं। सम्प्रदाय कोई भी हो और दूसरा लक्षण है 'भन्यका बुरा न करना। ये उसका धर्म बाहरी और भीतरी दो रूपों में चलता विधि-निषेधरूप या हकार नकाररूप साथ ही साथ रहता है। ब्राह्य रूपको हम धम कलेवर' कहे तो चलते हैं। एकके सिवाय दूसरेका सम्भव नहीं। भीतरी रूप को धर्म चेतना' कहना चाहिये। जैसे-जैसे धर्मचेतनाका विशेष और उत्कट स्पन्दन ___ धर्म का प्रारम्भ, विकास और प्रचार मनुष्य वैसे-वैसे ये दोनों विधि-निषेधरूप भी अधिकाधिक जाति में ही हुआ है। मनुष्य खुद न केवल चेतन है सक्रिय होते हैं। जैन-परम्पराकी ऐतिहासिक भूमिका
और न केवल देह । वह जैसे सचेतन देहरूप है वैसे को हम देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि उसके इतिही उसका धर्म भी चेतनायुक्त कलेवर रूप होता है। हास कालसे ही धर्मचेतनाके उक्त दोनों लक्षण चेतना की गति प्रगति और अवगति कलेवर के सहारे माधारणरूपमें न पाये जाकर प्रसारण और के बिना असम्भव है। धर्म चेतना भी बाहरी आचार व्यापकरूपमें ही पाये जाते हैं । जैन-परम्पराका रीति-रस्म, रूढ़ि-प्रणाली श्रादि कलेवरके द्वारा ही ऐतिहासिक पुरावा कहता है कि सबका अर्थात् प्राणीगति, प्रगति और अवगति को प्राप्त होती रहती है। मात्रका. जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षीके अलावा सूक्ष्म ___धर्म जितना पुराना उतने ही उसके कलेवर नाना- कीट जन्तु तकका समावेश हो जाता है-सब तरहसे रूपसे अधिकाधिक बदलत जाते हैं। अगर कोई धर्म भला करा। इसी तरह प्राणीमात्रको किसी भी प्रकारजीवित हो तो उसका अर्थ यह भी है कि उसके कैसे से तकलीफ न दो। यह पुरावा कहता है कि जैन भी भहे या अच्छे कलेवरमें थोड़ा-बहुत चेतनाका परम्परागत धर्मचेतनाकी वह भूमिका प्राथमिक नही अंश किसी न किसी रूपमें मौजूद है। निष्प्राण देह है । मनुष्यजातिके द्वारा धर्मचेतनाका जो क्रमिक सडाडकर अस्तित्व गॅवा बैठती है। चेतनाहीन विकास हुआ है उसका परिपक विचारका श्रेय पतिसम्प्रदाय कलेवरकी भी वही गति होती है। हासिक दृष्टिसे भगवान महावीरका ता अवश्य है ही। ___ जैन परम्पराका प्राचीन नाम-रूप कुछ भी क्यों कोई भी सत्पुरुषार्थी और सूक्ष्मदर्शी धर्मपुरुष न रहा हो; पर उस समयसे अभीतक जीवित है अपने जीवनमें धर्मचेतनाका कितना ही सदन क्यों जब जब उसका कलेवर दिखावटी और रोगग्रस्त हुश्रा न करे पर वह प्रकट होता है सामयिक और देशकाहै तब तब उसकी धर्म चेतनाका किसी व्यक्तिमें लिक आवश्यकताओं की पूर्तिके द्वारा । हम इतिहास विशेषरूपसे स्पन्दन प्रकट हुआ है। पार्श्वनाथ के बाद से जानते हैं कि महावीरने सबका भला करना और महावीरमें स्पन्दन तीव्ररूपसे प्रकट हुआ है जिसका किसीको तकलीफ न देना इन दो धर्मचेतनाके रूपों तिहास साक्षी है।
को अपने जीवनमें ठीक-ठीक प्रकट किया। प्रकटीधर्मचेतनाके मुख्य दो लक्षण हैं जो सभी धर्म- करण सामयिक जरूरतोंके अनुसार मर्यादित रहा। सम्प्रदायोंमें व्यक्त होते हैं। भले ही उम आविर्भावमें मनुष्यजातिकी उस समय और उस देशकी निर्वतारतम्य हो । पहला लक्षण है. 'अन्यका भला करना' लता. जातिमेदमें, कूधाबूतमें, खी की लाचारीमें