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अनेकान्त
मंजूलाल भाई मजूमदार द्वारा प्रेषित दुर्गासप्तशती के मध्यकालीन चित्र बतलाये, उन्होंने देखते ही इनकी कला और परम्परापर छोटासा व्याख्यान दे डाला जो आज भी मेरे मस्तिष्कमे गुञ्जायमान होरहा है । उसका सार यही था कि इन कलात्मक चित्रोंपर एलोराकी चित्र और शिल्पकलाका बहुत प्रभाव है। जैन-शैली के विकासात्मक तत्वोंका मूल बहुत अशोमें एलोरा ही रहा है। चेहरे और चक्षु तो सर्वथा उनकी देन है । रङ्ग और रेखाओं पर आपने कहा कि जिनजिन रङ्गोंका व्यवहार एलोरा के चित्रों हुआ है व ही रङ्ग और रंग्याएँ आगे चलकर जैन-चित्रकलामे विकसित हुई। यह तो एक उदाहरण है इमीमे समझा जा सकता है कि जैन- चित्रकलाकी दृष्टिसे भी इन स्थापत्यावशेषोंका कितना बड़ा महत्व हैं जिनकी हम भूलते चले जारहे है ।
ज्यों-ज्यों सामाजिक और राजनैतिक समस्याएँ खड़ी होती गई या स्पष्ट कहा जाय तो विकमित हाती गई त्यों-त्यों पर्वता गुफाओंका निर्माण कम होता गया और आध्यात्मिक शान्तिप्रद स्थानों की सृष्टि जनावास - नगरी में होने लगी । इतिहास इसका साक्षी है । मेरा तो वैयक्तिक मानना है कि इससे हमारी क्षति ही हुई, स्थानोंको अभिवृद्धि अवश्य ही हुई परन्तु वह आत्मविहीन शरीरमात्र रह गई । प्रकृतिसं जा सम्बन्ध स्थापित था वह रुक गया, जो आनन्द कुटिया मे -- जहाँ श्रावश्यकताओं की कमी पर ही ध्यान दिया जाता था है वह महलोंम कहाँ ? स्व० महात्माजीका निवास इसका प्रतीक है शान्तिनिकेतनमें मैंन महात्माजीका निवास स्थान देखा, दूर से विदित होता है मानो कोई गुफा बनी हुई है, भारी व्यवस्था भी पूर्व स्मृतिका स्मरण करा देती हैं।
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[ वर्ष ९
कलापर विस्तृत विवेचनात्मक प्रकाश डालनेवाला विवरण एवं महत्वपूर्ण भागोंके चित्र देकर एक ग्रन्थ प्रकाशित किया जाना चाहिए। यह इतिहास हमारी संस्कृति के महत्वपूर्ण अङ्ग जो देवस्थान, मुनिस्थान हैं उनके विकासपर बहुत बड़ा प्रकाश डालेगा। भारतीय पुरातत्त्व विभाग के डिप्टी डायरेक्टर जनरल श्रीमान् हरगोविन्दलाल श्रीवास्तव जैन- गुफाओं पर काम करनेवाले जैन विद्वानोंकी खोज मे है वे हर तरहसे सहायता प्रदान करनेको कटिबद्ध भी है, जैनाको ऐसा सुअवसर हाथसे न जाने देना चाहिए। अस्तु । ३ प्रतिमाएं -- निम्न उपविभागोंमें विभाजितकी जा सकती है:
(अ) तीर्थकरों की प्रस्तर प्रतिमाएँ (आ) तीर्थकरों की धातु प्रतिमाएँ (इ) तीर्थंकरों की काष्ठ प्रतिमाएँ (ई) यक्ष-यक्षिणीकी प्रतिमाएँ (3) फुटकर
(अ) प्रथम भागको हम अपनी अधिक सुविधा के लिये दो उपभागों में बाँटेंगे।
उपर्युक्त पक्ति कथित (?) साधन हमारी संस्कृति के वास्तविक रूपको प्रकट करते है। भारतीय स्थापत्यकलाका चरम विकास उन्हीं में अन्तर्निहित है । परन्तु जैननि अपनी इस निधिको आजतक उपेक्षित वृत्तिसे देखा । मैं तो चाहता हूँ अब समय आगया है इन गुफाओंका बिस्तृत अध्ययन कर उनकी शिल्प
१ मथुराकी प्रतिमास लगाकर १०वीं शती तक की समस्त पापा प्रतिमाएं एव प्रयाग पट्ट मिले है उनका महत्व सर्वोपरि है। प्राप्त जैन प्रतिमाश्रमे यहाँके ककाली टीले प्राप्त प्रतिभाएँ एव अन्य जैनावशेष सत्र प्राचीन है। मूर्तिका आकार-प्रकार भी अच्छा ही है। गुप्तोंके समयमे मूर्ति निर्माणकलाकी धारा तीव्रगति से प्रवाहित होरही थी। बौद्धोंने इससे खूब लाभ उठाया, क्योंकि उस समयका वायुमण्डल अनुरूप था। नालदाको अभी ही गत मास मुझे देखनेका सुअवसर प्राप्त हुआ था, यहॉपर जो जैन प्रतिमाएँ अवस्थित है व मथुराके बाद बनने वाली प्रतिमा श्रमे उच्च है, गुप्तकालीन कलाका प्रभाव उनपर बहुत अधिक पड़ा है। इनके सम्मुख घण्टों बैठे राह मन बड़ा प्रसन्न होकर आध्यात्मिक शक्तिका अनुभव करने लगता है। शुभ परिणामांकी धारा बहने लगती है । अनेकों सात्विक विचार और परम वीतराग परमात्मा के जीवन के रहस्यमय तत्त्व मस्तिष्कमे