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किरण ६]
जैनपुरातन अवशेष
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चक्कर लगाते रहते है। विहार प्रान्त प्राचीन जैन उपस्थितकी जा सकती है। कही-कहीं तो आधा भाग प्रतिमाओंका विशाल केन्द्र रहा मालूम होता है। ही है। जैनोंकी बेदरकारीके कारण न जाने संस्कृति कुण्डलपुर, राजगृह, विहार, पटना, लछबाड़ आदि को कितना नुक्सान उठाना पड़ेगा, इस बातका कुछ नगरोंमे मैने प्राचीन और प्रायः एक ही पद्धतिकी अनुभव जैनोंको करना चाहिए। २५-३० प्रतिमाएँ (गुप्त और अन्तिम गुप्तकालीन) मुझे यहाँपर बिना किसी अतिशयोक्तिके साथ देवी है। इनपर मेरा तो मत और भी दृढ़ होगया कहना चाहिए कि उपर्युत्त वर्णित जैन-प्रतिमाएँ गुप्तहै कि भारतम जैन और बौद्ध दो ही ऐसे लोक कालीन बौद्ध मूर्तियोंस संतुलित की जा सकती हैं। कल्याणकारी सम्प्रदाय है जिनकी प्रतिमाओंके सामने इस युगमे प्रतिमाएँ एक पापाणपर उत्कीर्णकर चारों बैठनमें अत्यधिक आनन्दका अनुभव होता है। और काफी रिक्त स्थान छोड दिया जाता था। इस विशुद्ध भावोंकी सृष्टि होती है । अद्गत प्रेरणा युगकी जो प्रतिमाएं प्राप्त होती है उनमे श्वेताम्बर मिलती है।
दिगम्बरका कोई भेद भी पाया नहीं जाना, मालम वक्त कालकी जो देखनेमे प्रतिमा आई उनपर होता है ज्या-ज्यों साम्प्रदायिकता बढी त्या-त्यों लेग्व बहुत ही कम मिलते है, जो है वे बौद्धनोटी “ये शिल्पम विकृति आने लगी। धम्मा" है, कारण कि ५०वी शती पूर्व वैमी पृथा ही २इम विभागम वे मूर्तियां रखी जा सकती हैं कम थी । लान्छन भी सम्भवत: नहीं मिलते, कंवल जो १८वी शताब्दीकी है। उत्तरकालमे ००० वर्पोतक पार्श्वनाथ ऋषभदेव ( कंशावली और कभी-कभी तो कलाकागेंके हृदय, मस्तिष्क और हाथ बराबर वृपभका चिह्न कही मिल जाता है) इन नीथेकरांक कलात्मक मृजनमें लगे रहे, पर बादमे तो केवल हाथ चिह्न ना मिलते है पर अन्य नहीं मिलते, परन्तु ही काम करते रहे। न मस्तिष्कम विविध उदात्तभाष लॉछन स्थानपर दोनों मृगांक बीच "धर्मचक्र" रहन हृदय ही सात्विक था और न उनके प्रमों में मिलता है जिसे बहतसे लोग मुन्दर .मलाकृति वह शक्ति रह गई थी जो सीव यानि निर्मित कर मम बैठते है।
मके। ऐमी स्थिति कला-कौशल की धारा शुष्क हो ____एक हाटस जैन प्रतिमाओंका यह मौलिक चिर गई, यही कारण है कि बादकी अधकांश मुनियाँ है। यह जैन धर्मका प्रधान और परम पवित्र प्रतीक कलाविहीन और भद्दी मालुम देती है। हाँ' कलचूरी, है । प्रथम तीर्थकर ऋपभदेव स्वामीजीन इमकी पाल, गङ्ग और चालुक्यां आदिक शासन-कालकं कुछ प्रवर्तनाकी थी और बादमे ईस्वी पूर्व ३-५ शदीम अवशंप एम है जिनके दर्शन कला-ममीक्षक सन्तुष्ट जैनोंम बौद्धान इम चिह्नको अपना लिया, अशोकन हो मकता है। १३वीं शतीक अनन्तर मृतियाँ प्रायः इस जिन शिल्प स्थापत्योंम स्थान दे दिया व प्रकाशम धार्मिक दृष्टिसे ही महत्वकी रहीं, कलाकी दृष्टिम नहीं।
आगये और जैन अवशेप दबे पड रह, अतः पुगनत्व मुझं इसके दो प्रधान कारण मालूम होते हैं। प्रत्येक विभाग और भारत मरकारके प्रधान कार्यकर्ताओंन राष्ट्रकी राजनीतिका प्रभाव भी उसकी मभ्यता और इस अशोककी मौलिक कृत्ति मानकर गध्वजपर भी मस्कृतिक विकाममं महत्वका भाग रखता है। १३वीं स्थान दे दिया, निष्पक्षपात मनोभावाम यदि देवे शतीके बाद भारतकी राजनैतिक स्थिति और विशेपतो मानना होगा कि धर्मचक्र जैन मस्कृतिकी मुख्य कर जहाँ जैनांका अधिकाश भाग रहता था वहाँकी वस्तु है । इसका प्रधान कारण यह भी है कि गुप्त नो स्थिति अत्यन भीपण थी । विदेशी आक्रमण या अन्तिम गमकालक अनन्तर भी प्रतिमाओंम और प्रारम्भ होगये थे, जान-मालकी चिन्ता जहाँ मवार विशेषकर धानुकी मूतियोंमे धमचक्रका बगवर स्थान हो वहाँ कलात्मक मृजनपर कौन ध्यान देता है? रहा है। हजारों प्रतिमाएँ इमके उदाहरण म्वरूप ऐसी स्थितिमे पापाएकी प्रतिमाकी अपेक्षा लघुनम