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भनेकान्त
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धातु-मृतियोंका निर्माण अधिक होने लगा जो गृहमे मिली है। चौबीसी भी प्राप्त है। उत्तर भारत और भी आसानीसे रखी जा सकती है। दमवीं शतीक दक्षिण भारतकी क्लामे जो पार्थक्य पाया जाता है बादकी प्रतिमाएँ आजतक बहुत ही कम प्रकाशमे वह स्पष्ट है। प्रभावलीसे ही दोनोंका पार्थक्य स्वयं आई हैं । मध्यप्रान्तमे जबलपुर, धुनमौर, सिवनी होजाता है । इसमें लेख भले ही न हों पर दूरसे पता आदि नगरोंमे इस युगकी प्रतिमा-सामग्री है। १६वीं चल जाता है। घंटाकृति आमन और साँचीके तोरण शताब्दीम जीवराज पापडीवाल ने तो गजब ढा दिया, की आकृतियाँ कहीं-कहीं-है जो अन्तिम गुप्तकालीन हजागे प्रतिमाएँ तो श्राजतक मै देख चुका हूँ । इनके बौद्धकलाकी देन हैं। १३वीं शताब्दी तक तो धातु द्वारा प्रतिष्ठित मृतियाँ तो दूरसे ही पहचानी जाती है। मर्तियों के निर्माणपर जैनोंने खब सावधान होकर हाँ, इस युगकी प्रतिमाओंपर लेख खूब विस्तृतरूपसे ध्यान दिया, परन्तु बादको तो जो दशा हुई उसको मिलते हैं। जो मूर्तियाँ मिली हैं वे स्वतन्त्र फलकपर आज देखते हैं तो बड़ा दुःख होना है। परिकर युक्त इसप्रकार बनाई है कि मानो आगे स्थान ही नहीं प्रतिमाएँ तो पापागण और धातुकी और भी मिली है। रहा । कहने का तात्पर्य यह है कि परिकरवाली इन दिनोंम तो परिकारको इस प्रकार विस्तृत कर प्रतिमाएँ कम मिली है । जो है व ११से १३वी शती दिया कि मृतिक मूल भावोंकी रक्षाकी कोई चिन्ता तककी ही सुन्दर है। पूर्वकालमे परिकरके स्थानपर नहीं रक्खी । जो स्वतत्र धातुविम्ब विशालकाय प्रायः प्रतिमा या चामरादि लिये परिचायक, छत्र निर्मित हय व नि:मन्दह अच्छे है। चामदिसे विभूपित देव है-अष्ट प्रातिहारिज है। १०वी ११वी शती पूर्वक जिनविम्बोंको जिम
३ (आ) इस श्रेणीम वे मतियाँ आजाती हैं जो प्रकार अग्रभागपर ध्यान देकर सुन्दर बनाया जाता सप्तधातुओंसे बनी है। इसप्रकारकी प्रतिमाएँ पाषाण है पर पश्चान भाग खरखरा ही रहने दिया जाता था की अपेक्षा सुरक्षा और कला-कौशलकी हटिस अधिक पर बादमे ५३वी शती बाद तो वह भाग बहुत प्लैन उपयोगी है । पाषाणकी प्राचीन प्रतिमाएँ देखते है तो दीखता है कारण कि लेख यहीं खोदे जाते है । कही. कहीं पपड़ी खिर जाती है या जमीनमे खुदाईके समय कही पीछे भी चित्रोत्कीणित है । १ स्वर्ण और २ रजत खण्डित होजाती है। धातुमूर्तिको कोई स्वर्णके लोभ की प्रतिमा भी देखने आती हैं। १५वी शती तक से गला भले ही दे ...." .. " पर खण्डित नहीं कर यह प्रथा चली। माधारण जैन जनताम मूति विषयक मकता । कलाकारको भी इनके निर्माणमे अपेक्षाकृत ज्ञान कम होनसे बड़ा नुम्मान होरहा है। बहुत ही कम श्रम करना पड़ता है। क्योकि ये ढाली जाती थीं। सुन्दर हममुग्व मृतिको लोग तुरन्त कह डालते है यह धातुमृतियोंका इनिहाम तो बहुत ही अन्धकारमे है। तो बौद्ध प्रतिमा है। वर्धा जिलान्तगत श्रावकि जैन यदपि कुछेक चित्र अवश्य ही प्रकट हुए है पर उनकी मन्दिरम मैनं १२वी शताब्दीकी उत्तर भारतीय कला सार्वभौमिक व्याप्तिका पता उनसे नहीं चलता। की अत्यन्त सुन्दर जैन प्रतिमा एक कोनेमे-जिसपर पीडवाड़ा और महुडीमें जो जैन धातुप्रतिमाएँ प्राप्त काफी धूल जमी हुई थी-पड़ी देवी थी, मैंने वहाँक हो चुकी है वे कला-कौशलके श्रेष्ठ प्रतीक है और गुप्त- खडेलवाल भाइयोमं कहा कि यह मामला क्या है ? कालकी बताई जाती है। इनके बादकी भी मतियाँ वे कहने लगे प्रथम तो हम इसे पूजाम रग्बते थे मिली अवश्य है पर उनम धातुकी मफाई अच्छी नहीं पर जबसे इसके बौद्ध होने का हमे पता चला तभीमे पाई जाती है और न उनका मौष्ठत्व ही आकर्षक हमने कोनेमे पटक रक्खी है । यह हालत है। बीकानेर है। वीं शती पूर्व की प्रतिमाएँ एक माथ पाँच या के चिन्तामणि पाश्वनाथमन्दिरके गर्भगृहमे १००० तीन जुड़ी हुई मिली है। यों तो ११वी १२वीं शताब्दी धातु प्रतिमा है, जिनमे कलाकी दृष्टि से बहुमूल्य मे नवग्रह युक्त, शासनदेव-देवी सहित अधिक मूर्तियाँ भी है।