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अनेकान्त
[ वर्ष ९
और कराया है। भारतवर्षीय जैन-शिक्षा-प्रचारक प्रताप', मदन, प्रकाश की जैसी राजनैतिक ममितिका सङ्गठन स्वर्गीय दयाचन्द्र गोयलीय और आत्मोत्सर्गी च कड़ियाँ मेरे सामने इस असमर्थ उनके वर्ग के अन्य मत्यहदयी कार्यकता-मोती', दशामें भी चिर आराध्य-पदपर आसीन है। प्रात:१ स्वर्गीय वीर-शहीद मोतीचन्द सेठीजीके शिष्य थे। स्मरणीय आदर्श पण्डित-राज गोपालदासजी वरैया,
उन्हें श्राराक महन्तको वध करनेके अभियोगमे दानवीर सेठ माणिकचन्द्र और महिला-ज्योति मगन (सन् १९१३)में प्राण दण्ड मिला था। गिरफ्तारीसे बहनके आदि के नेतृत्व-मण्डलका मैं अंगीभूत पुजारी पूर्व पकडे जानेकी कोई सम्भावना नहीं थी। यदि अद्यावधि हूँ और पर्देकी अोटमे उन सबकी सत्ताशिवनारायण द्विवेदी पुलिसकी तलाशी लेनेपर
वाटिकाका निरन्तर भोगी भी हूँ और योगी भी। स्वयं ही न बहकता तो पुलिसको लाख सर पटकने
कौन किधर कहाँसे यहाँ क्या और वहाँ क्या इत्यादि पर भी सुराग नहीं मिलता। पकडे जानेसे पर्व प्रत्यक प्रश्नके उत्तरमे मेरे लिये तो उक्त दिव्य महासेठीजी अपने प्रिय शिष्योंके साथ रोजानाकी मोतीचन्द और दूसरेका नाम था माणिकचन्द्र या तरह घूमने निकले थे कि मोतीचन्दने प्रश्न किया जयचन्द्र। इन सभी विलवियोंके मनके तार ऐसे 'यदि जैनीको प्राणदण्ड मिले तो वे मृत्युका ऊँचे सुरमे बंधे थे जो प्रायः माधु और फकीरोंके
आलिङ्गन किम प्रकार करे ?' बालकके मुंहस ऐमा बीच ही पाया जाता है। वीगेचित किन्तु अमामयिक प्रश्न सुनकर पहले तो १ प्रतापसिंह वीर-कमरी ठाकुर कैमरमिहके सुपत्र सेठीजी चौके, फिर एक माधारण प्रश्न समझकर और मठीजीक प्रिय शिष्य थे। संठीजीके उपदेश उत्तर दे दिया। प्रश्नोत्तरके १ घण्टे बाद ही पुलिस परमं ये उम समयके सर्वाच्च क्रान्तिकारी नेता ने घेरा डालकर गिरफ्तारकर लिया, तब सेठीजी म्वर्गीय रामविहारी बोमके सम्पर्कमे रहते थे। उनकी मृत्युसे वीरोचित जमने की तैयारीका अभि- इनके जांबाज कारनामे और आत्मोत्मगकी वीरप्राय ममझे। ये मोतीचन्द महाराष्ट्र प्रान्तके थे। गाथा 'चाँद' वगैरहमे प्रकाशित हो चुकी है। इनकी मृत्युसे मेठीजीको बहुत आघात पहुँचा था। २ मदनमोहन मथुरासे पढ़ने गये थे। इनके पिता इनकी स्मृतिस्वरूप सेठीजीने अपनी एक कन्या सराफा करते थे। सम्पन्न घरानके थे। सम्भवतः महाराष्ट्र प्रान्त जैसे सुदूर देशम ब्याही थी। सेठी इनकी मृत्यु अचानक ही होगई थी। इनके छोटे भाई जीके इन अमर शहीद शिष्योंक सम्बन्धमं प्रसिद्ध भगवानदीन चौरासीमे ११-१४-१५मे मेरे साथ विलववादी श्री० शचीन्द्रनाथ सान्यालने "बन्दी- पढ़ते रहे हैं, परन्तु मदनमोहनके सम्बन्धमे कोई जीवन" द्वितीय भाग पृ० १३७में लिखा है- बात नहीं हुई। बाल्यावस्थाके कारण इस तरहकी "जैनधर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने कर्तव्यकी बाते करनेका उन दिनों शऊर ही कब था ? खातिर देशकं मङ्गलके लिये सशस्त्र विलवका मार्ग ३ प्रकाशचन्द सेठीजीके इकलौते पुत्र थे। सेठीजी पकड़ा था। महन्त के वृनके अपराधम वे भी जब की नजरबन्दीके समय यह बालक थे। उनकी फाँसीकी कोठरीमे कैद थे, तब उन्होंने भी जीवन- अनुपस्थितिमे अपने-परायोंके व्यवहार तथा आपमरणके वैसे ही मन्धिस्थलसे अपने विसवक दाओंके अनुभव प्राप्त करके युवा हुए । सेठीजी साथियों के पास जो पत्र भेजा था, उसका सार ५-६ वर्षकी नजरबन्दीसे छूटकर आये ही थे कि कुछ ऐमा था-"भाई मरनेसे डरे नही, और उनकी प्रवास-अवस्थामें ही अकस्मात मृत्यु होगई। जीवनकी भी कोई माध नही है। भगवान जब सेठीजीको इमसे बहुत श्राघात पहुँचा । इन्हीं जहाँ जैसी अवस्थाम रक्खेगे, वैसी ही अवस्थामे प्रकाशकी स्मृति-स्वरूप इनके बाद जन्म लेने वाले सन्तुष्ट रहंगे।" इन दो युवकोंगसे एकका नाम था पुत्रका नाम भी उन्होंने प्रकाश ही रक्खा।