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सेठीजीका अन्तिम पत्र
(प्रेषक-अयोध्याप्रमाद गोयलीय )
[पुराने कागजात उलटते हुए मुझे स्वर्गीय भय पं० अर्जुनलाल जी सेठीका निम्न पत्र फुलिस्कैप श्राकारके छह पृष्ठोम पेसिलसे लिखा हुआ मिला । यह पत्र जिनको सम्बोधन करके लिखा गया है, उनका नाम और उन सम्बन्धी व्यक्तिगत बाने ओर कुछ राजनैतिक चर्चाएं जो अब अप्रासांगिक होगई है . छोड़कर पत्र ज्योंका त्या दिया जा रहा है। पत्रके नीचे उनके दस्तखत नहीं है। हालांकि ममूचा पत्र उन्हींका लिखा हुआ है। मालम होता है या तो वे स्वय इस कटे-छट पत्रको साफ करके भेजना चाहते थं या दूसरेसे प्रतिलिपि कराके भेजना चाहते थे । परन्तु जल्दीम साफ न होने के कारण वही भेज दिया । सम्भवतया जैनममाजको लक्ष करके लिखा गया उनका यह अन्तिम पत्र है, यान रहे यह पत्र मुझ नहीं लिग्वा गया था। पत्र मेरी मार्फत श्राया था इमलिये उन्हें दिग्वाकर भने अपने पाम मुरक्षित रग्ब छोटा था। लिया जासका नो मटीजीके सस्मरगा जी "अनेकान्त"के किमी अङ्कम देनेका प्रयत्न करगा। गायलीय
अजमेर वाताकाश किस हद तक लौकिक और पारलौकिक
१६ जुलाई १९३८ दोनों ही प्रकारका हित-माधक होगा, यह एक गहन धमे बन्धु,
विचारणीय विषय है। इसी ममस्या और आशयको मंसारके मूलतत्वको अर्हत-कवली कथित अने- लेकर मै आपके मम्मुम्ब एक खुली प्रार्थना लेकर कान्त स्वरूपसे विचारा जाय और तदनुसार अभ्याम उपस्थित होता हैं और आपका विशेष ध्यान बालमें उसका अनुभव भी प्राप्त हो तो, स्पष्ट होजाता है सुखसं हटाकर अन्तम्तलकी तरफ ले जानेका प्रयाम कि प्रत्येक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपनी विशेषता करता हूँ। मुझे आशा है कि मेरे रक्त-माँम रहित शुष्क रखता है, और वैयक्तिक एव मामूहिक दोनों ही तन पिंजड़ेक कैदी आत्माकी अन्ननि आपके द्वारा प्रकारकं जीवनम परिवर्तन स्ववश हो चाहं परवश, जैनममाजियोंके बहिगत्मा और अन्तरात्मामे पहुँच अवश्यम्भावी होता है । यह परिवर्तन एकान्तसे जाय जो यथार्थ तत्वदर्शनकी प्रगति और मोक्षमिद्धि निर्दोष श्रेयस्कर ही होगा ऐसा नहीं कहा जामकता। म माधक प्रमाणित हो। कई अवस्थामे चैयक्तिकरूपमै और कतिपयमे आप ही को मै क्यों लिग्ब रहा हूं, आपसे ही मामूहिक रूपसे परिवर्तन अर्थात इन्कलाब हित और उक्त श्राशा क्या होती है, इसका भी कारण है। मेग कल्याणके विरुद्ध अवाञ्छनीय नहीं नहीं-विष जीवनभर जैनममाज और भारतवर्पक उत्थानमे फलदायक भी साबित होता है। मानव जातिका माधारणतया वाकशूर वा कलमशूरकी नरह नहीं मष्टिगत इतिहाम इमका मानी है । अतः भाग्नमें गुजग, मैन अमाधारण आकारके घन-पिण्डम परिवर्तन-इन्कलाबका जो शोर चहै ओर मच रहा अपना और अपने हृदय-मन्दिरकी दिव्य नपम्वीहै और जिसकी गूंज कोने-कोनमें सुनाई दे रही है, मुनियांका उबलना हुश्रा रक्त दिया है, जैनों और उससं जैनममाज भी बच नहीं मकता । परन्तु भारतीयोके उग्र तपोधन देवोंका प्रत्यक जीवन माग अनेकान्तदृष्टिम तथा अनेकान्ताप व्यवहारम जैन मम्वपर-भंट जनिन वामनाओंको भम्मीभूत करके ममाजके लिये उक्त परिवतन ध्वनिसे उत्पन्न हुआ मार्वहितके लनमे प्रगतिका क्रियात्मक मचालन किया