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________________ किरण ४] सेठीजीका अन्तिम पत्र १६३ ............. पुरुषोंकी आत्माएँ ही अचक परीक्षा-कसौटीका काम वा अव्यवहार्य, लाभप्रद वा हानिकर इत्यादि अनेक देती हैं, चाहे उस समयमें और अब जीवोंके परिणाम रूप-रूपान्तरमे मौजूद हैं। उनमेसे प्रत्येकका तथा और लेश्याओंमें जमीन आस्मानका ही अन्तर क्यों उनसे सम्बन्ध रखने वाली घटनाओंका गृहस्थ तथा न हो गया हो। त्यागी, श्रावक-श्राविकाओंके दैनिक जीवनपर एवं सतनामें परिषदका अधिवेशन पहला मौका था मन्दिर-तीर्थों अथवा अन्य प्रकारकी नूतन और तब उल्लेखनीय जैनवीर-प्रमुख श्री........................ पुरातन मम्थाओंपर पड़ा है, वह भी आपके सम्मुख के द्वारा आपसे मेरी भेट हुई थी। मै कई वर्षोंके है। मै तो प्रायः सबमे होकर गुजर चुका है, और उपयुक्त मौनामहनतके बाद उक्त अधिवेशनमे शरीक उनके कतिपय कड़वे फल भी खूब चाख चुका है और हुआ था । इधर-उधर गत-युक्तके सिंहावलोकनक चाम्व रहा हैं। अत आपका और श्रापकं महकारी पश्चात मै वहाँ इस नतीजेपर पहुंच चुका था कि आप कार्य-कर्ताओंका विशेष निर्णायक लक्ष इस पर म मत्य-हृदयता है और अपने महधर्मी जैनबन्धुओं अनिवार्य-अटल होना चाहिये। नहीं तो जैन सङ्गठन के प्रति आपका वात्मल्य ऊपरकी झिल्ली नहीं है किन्तु और जैनत्वकी रक्षाके ममीचीन ध्ययम केवल वाधाएँ रगोरेशेमे खौलता हुआ ग्वन है परन्तु तारीफ यह है ही नहीं आएंगी, धक्का ही नहीं लगगे, प्रत्युत नामाकि ठोम काम करता है और बाहर नहीं छलकता। निशान मिटा देने वाली प्रलय भी होजाय ता मानव जानिक भयावह उथल-पुथलके इनिहामका देखते __इस तरह मुझे तो दृढ प्रतीत होता है कि आपके हुए कोई असम्भव बात नहीं है । अल्पसंख्यक मामने दि मै जैनसमाजके आधुनिक जीवन-मत्वक जातियोको पेर फूक-फककर चलना होता है और सम्बन्धमे मेरी जिन्दगी भरकी मुलझाई हई गत्थियों बहुसंख्यक जानियोक बहुत आन्दोलन जो उन्हीको को रख दें तो आप उनको अमली लिबासमे जहर उपयोगी होत है. अल्पसंख्यकोंमे घुम जाते है और रख सकेगे। अपक्षा-विचारसे यही निश्चयम श्राया। उनके लिये कारक होनकी अपेक्षा मारकका काम देत बन्धुवर, है। उनकी बाहरी चमक लुभावनी होती है, कई आपने राष्ट्रीय राजनैतिक क्षेत्रके गुटोंमे घुल-घुल हालतोमे तो आँखोंम चकाचौध पदाकर देती है, कर काम किया है, उसकी रग-रगसे आप वाकिफ मगर वास्तवम (Old is not god glittहरेक हो चुके है और तजरुबसे आपको यह स्पष्ट हो चुका चमकदार पदार्थ सोना ही नहीं होता। बहसंख्यक है कि हवाका रुख किधरको है। इसीसे परिणाम लोगांकी तरफसे मस्त्रमली खूबसूरत पलामे ढके स्वरूप आपने निर्णय कर लिया कि जैनंतरोकी ज्ञात हुए खड़े विचारपूर्वक वा अन्तस्थित पीढ़ियों के वा अज्ञात भक्ष्य-भक्ष्यक प्रतिद्वन्द्विताके मुकाबिलेमे स्वभावज चक्रमे तैयार होते रहते है जिनके प्रलोभन सदियों के मारे हए जैनियोंके रग-पट्रांम जीवन-संग्राम और ललचाहटमे फैमकर अल्पमव्यक लोग शत्रको और मूल संस्कृतिकी रक्षाकी शक्ति पैदा हो सकती है ही मित्र समझने लगते है, यही नहीं; किन्तु अपने तो केवल उन्हीं साधनों और उपायोंसे जो दुमरे मत्व-स्वत्वकी रक्षाका नयाल तक छोड़ बैठते है। लोग कर रहे है अथवा जिनमे बहुत कुछ मफलना किमाधिकम इम म्व-रक्षणकी भावना वासना भी जैनोंके महयोगसे मिलती है। .. .. ... ............... उनको अहितकर जॅचने लगती है । इसके अलावा आपके सामने आधुनिक काल-प्रवाहके भिन्न- भावी उदयावलीके बल अथवा यों कहै कि कालदीप भिन्न आन्दोलन समूह धार्मिक वा मामाजिक, में प्रभागे अल्पसंख्यकोंमेमे कोई कस जैसे भी पैदा वाञ्छनीय वा अवाञ्छनीय, हेय वा उपादेय, उपेक्षणीय होजाते हैं जो अपने घरके नाश करनेपर उतार वा अनपक्षणीय, आदरणीय वा तिरस्कार्य, व्यवहार्य होजाते हैं. गैगेंके चिगरा जलाते है और पर्वजोंक
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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