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सम्पादकीय
वीर - जयन्ती
गत वर्षोंकी तरह इस वर्ष भी चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वीर प्रभुकी जयन्ती समूचे भारत में अत्यन्त उत्साहपूर्वक मनाई गई। इस वीर जयन्तीकी प्रणाली से जैनधर्मका काफी प्रसार हुआ है। पहले जैनसमाज के उत्सव आदि अत्यन्त संकुचित रूपमें होते थे । प्रायः जैनमन्दिर, जैनधर्मशाला और जैन उपाश्रय ही उत्सव और व्याख्यानादिकं क्षेत्र नियत थे । सार्वजनिक सभाओंके करनेका न तो आमतौर पर साहस होता था और न इस तरहके व्याख्यानथे दाता ही प्राप्त
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वीर जयन्तीकी यह परिपाटी पड़ जानसे बड़ा महत्वपूर्ण कार्य हुआ है । इस अवसर पर अब प्रायः सर्वत्र सार्वजनिक स्थानोंपर सभाएँकी जाती है, कवि सम्मेलनों मुशायरोंका भी आकर्षक कार्यक्रम रखा जाता है; सर्वधर्म सम्मेलन किये जाते है; नगरजुलूस निकाले जाते है और व्याख्यान देनेके लिये नेताओं-लोकसेवी विद्वानोंको भो बुलानेका प्रयत्न किया जाता है। कितने ही स्थानोंपर जैनधर्मके समीपके सम्प्रदायोंके अनुयायी भेदभाव भूलकर यह उत्सव मनाते हैं और अपने भिन्नधर्मी देशवासियों को भी प्रेमपूर्वक उसमे सम्मिलित करते है ।
घरको अंधेरा नरक बना देते है ।
............इस तरह जैनकुलाम, जैनपखायनों मे, जैनगृहों में चलती चलाती ठण्डी पड़ी हुई अम्नाश्रम कलह, भीषण क्षोभ, और तत्कालस्वरूप तीत्र कषायोदय और अशुभ बन्धकं अनेक निमित्त कारणोंसे बचाकर जैनोका रक्षण, मगठन और उत्थान होगा, तभी इस समयकी लपलपाती हुई अनेकान्त-नाशक जाज्वल्यमान दावाग्निस जैनधर्म और जैनमस्कृति स्थिर रहेगी ।
इस प्रयत्न से भ्रातृत्व की भावना बढ़ती है, जैन
धर्मके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होती है, फैली हुई 'अ भ्रामक धारणाएँ दूर होती हैं और जैनधर्मके मानवोचित सिद्धान्तोंका व्यापक प्रसार होता है ।
अब
वीर जयन्ती के समान और भी सार्वजनिक तथा व्यापक दृष्टिकोण वाले उत्सवोंकी परिपाटी डालनी चाहिये। वीरसेवामन्दिर द्वारा वीर-शासन- जयन्तीका आयोजन भी इसी तरह का पुण्य प्रयास है। अब इसका व्यापक प्रचार होनेकी नितान्त आवश्यकता है । कलकत्ता, बम्बई मे पर्युषण पर्वपर व्याख्यानमाला की सूम भी अभिनन्दनीय है । आशा हँ 'जैन समाज के बहुजनता वाले शहरों - इन्दौर, अजमेर, व्यावर, जयपुर, सहारनपुर, देहली, जबलपुर, अहमदाबाद आदिके उत्साही कार्यकर्ता इस प्रथाका अनुसरण करेंगे । १५-२० शहरोंके कार्यकर्ताओं की एक समिति बन जानी चाहिये, जो सार्वजनिक २०-२५ व्याख्यानदाताओं का निर्वाचन करके इस तरहका कायक्रम निर्धारित करे जिससे ये विद्वान् १० शहरोंमे निरा कुलता पूर्वक जाकर पर्युषण पर्वमे व्याख्यान दे सके । इस संगठित प्रणालीसे व्यय भी कम होगा और स्थानीय कार्यकर्ता विद्वानों के बुलाने आदि की मंझट से भी बच सकेगे। दस रोज़ एकसे एक नये विद्वान्का व्याख्यान सुननेके लिये जनता भी उत्साहित रहेगी और जैनधर्मको धीरे-धीरे सार्वजनिकरूप भी प्राप्त होगा ।
भारतके लोकोपयोगी और सार्वजनिक कार्योंम जैनों का सदैव भरपूर सहयोग रहा है। हर उन्नत कार्योंमे सर्वत्र जैनोंने हाथ बटाया है, फिर भी वे सार्वजनिक दृष्टिकोण मे कितने उपेक्षित है, यह आभास पग-पग पर होता है ।
इसका कारण यही है कि हमने इस विज्ञापन के युगमे जैनधर्मके सिद्धान्तोंको जनताकं सामने लानेका