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सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन
[श्रीजुगलकिशोर मुख्तार]
'सन्मतिमूत्र' जैनवाङमयमें एक महत्वका गौरवपूर्ण ग्रन्थरत्न है, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे माना जाता है । श्वेताम्बरामें यह 'सम्मतितक', 'सम्मतितर्कप्रकरण' तथा 'मम्मतिप्रकरण' जैन नामोसे अधिक प्रसिद्ध है, जिनमे सन्मति'की जगह 'सम्मति' पद अशुद्ध है और वह प्राकृत 'सम्मइ' पदका गलत संस्कृत रूपान्तर है। पं० सुखलालजी और पं० बेचरदामजीने, ग्रन्थका गुजगनी अनुवाद प्रस्तुत करते हुए प्रस्तावनामें इस गलतीपर यथेष्ट प्रकाश डाला है और यह बतलाया है कि 'सन्मति' भगवान महावीरका नामान्तर है जो दिगम्बर-परम्परामें प्राचीनकालसे प्रसिद्ध तथा 'धनञ्जयनाममाला मे भी उल्लेखित है, ग्रन्थ-नामके साथ उसकी योजना होनेसे वह महावीरके सिद्धान्तोके साथ जहाँ प्रन्थके सम्बन्धको दर्शाता है वहाँ श्लेपरूपसे श्रप्टमति अर्थका सूचन करता हुश्रा प्रन्थकर्ताके योग्य स्थानको भी व्यक्त करता है और इसलिये औचित्यकी दृष्टिसे 'सम्मति के स्थानपर 'सन्मति' नाम ही ठीक बैठता है। तदनुसार ही उन्होंने ग्रन्थका नाम 'सन्मति-प्रकरण' प्रकट किया है। दिगम्बर-परम्पराके धवलादिक प्राचीन ग्रन्थोंमे यह सन्मतिसूत्र (मम्मइसुत्त) नामसे ही उल्लेग्वित मिलता है। और यह नाम मन्मति-प्रकरण नामसे भी अधिक औचित्य रखता है। क्योंकि इसकी प्रायः प्रत्येक गाथा एक सूत्र है अथवा अनेक सूत्रवाक्यांको साथमे लिये हुए है। पं० सुखलालजी आदिने भी प्रस्तावना (पृ० ६३)में इस बातको स्वीकार किया है कि 'सम्पूर्ण मन्मान ग्रन्थ सूत्र कहा जाता है और इसकी प्रत्येक गाथाको भी सूत्र कहा गया है।' भावनगरकी श्वेताम्बर सभासे वि० सं० १९६५मे प्रकाशित मूलप्रतिमें भी "श्रीसंमतिसूत्र समाप्तमिति भद्रम” वाक्यके द्वारा इसे सूत्र नामके साथ ही प्रकट किया है-तर्क अथवा प्रकरण नामके साथ नहीं।
इसकी गणना जैनशामनके दर्शन-प्रभावक ग्रन्थोमें है । श्वेताम्बगेंके 'जीतकल्पचूर्णि ग्रन्थकी श्रीचन्द्रमूरि-विरचित विपमपदव्याग्न्या' नामकी टीकामें श्रीअकलङ्कदेवके 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रन्थके साथ इम 'सन्मति' ग्रन्थका भी दर्शन-प्रभावक ग्रन्थोमे नामोल्लेग्व किया गया है और लिखा है कि से दर्शनप्रभावक शास्त्रोका अध्ययन करते हुए माधुको अकल्पित प्रतिसेवनाका दोप भी लगे तो उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है वह साधु शुद्ध है।' यथा
“दमण त्ति-दमण-पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिण्हंतोsसंथरमाणो जं अकप्पियं पडिसेवइ जयणाए तत्थ सो सुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः ।"
इससे प्रथमाल्लंग्विन मिद्विविनिश्चयको तरह यह ग्रन्थ भी कितने अमाधारण महत्वका है इमे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है। एसे ग्रन्थ जैनदर्शनकी प्रतिष्ठाका स्व-पर हृदयोमे अङ्कित करनेवाले होते है। तदनुसार यह ग्रन्थ भी अपनी कीर्तिको अक्षुण्ण बनाय हुए है। १ "अणेण सम्मइसुत्तेण सह कथमिदं वक्खाणं ण विरुज्झदे ? इदि ण, तत्थ पजायस्स लक्तणं
खदणो भावब्भुवगमादो।" (धवला १) ‘ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो उजुसुद-णय विसय भावणिक्खेवमस्सिदूण तप्पउत्तीदो।" (जयधवला) २ श्वेताम्बरोंके निशीथ ग्रन्थकी चूर्णिमें भी ऐसा ही उल्लेख है:
"दंसबगाही-दसणणाणप्पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि गेयह तो असंथरमाणे जं कधियं पनिवति जयगाने नाश मो मटो भातापिनी Antar ---- .