SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्तभद्र -भारतीके कुछ नमूने युक्त्यनुशासन विशेष- सामान्य विषक्त - भेदविधि-व्यवच्छेद- विधायि-वाक्यम् । श्रमेद-बुद्ध रविशिष्टता स्याद् व्यावृत्तिबुद्धश्व विशिष्टता ते ॥ ६०॥ ‘वाक्य (वस्तुतः) विशेष (विसदृश परिणाम) और सामान्य (सदृश परिणाम) को लिये हुये जो (द्रव्यपर्यायी अथवा द्रव्य-गुण-कर्मकी व्यक्तिरूप) भेद हैं उनके विधि और प्रतिषेध दोनोंका विधायक होता है । जैसे 'घट लाओ' यह वाक्य जिस प्रकार घटके लानेरूप विधिका विधायक ( प्रतिपादक ) है उसी प्रकार घटके न लानेरूप प्रतिषेधका भी विधायक है, अन्यथा उसके विधानार्थ वाक्यान्तरके प्रयोग - का प्रसंग आता है और उस वाक्यान्तरके भी तत्प्रतिषेधविधायी न होनेपर फिर दूसरे वाक्यके प्रयोगकी जरूरत उपस्थित होती है और इस तरह antarन्तर के प्रयोगकी कही भी समाप्ति बन न सकनेसे अनवस्था दोषका प्रसंग आता है, जिससे कभी भी घटके लारूप विधिक प्रतिपत्ति नही बन सकती । अतः जो वाक्य प्रधानभावसे विधिका प्रतिपादक है वह गौणरूपसे प्रतिषेधका भी प्रतिपादक है और जो मुख्यरूपसे प्रतिषेधका प्रतिपादक है वह गौणरूपसे विधिका भी प्रतिपादक है, ऐसा प्रतिपादन करना चाहिये । (हे कीर जिन!) आपके यहाँ आपके स्याद्वाद - शासनमें- (जिस प्रकार) अभेदबुद्धिसे (द्रव्यत्वादि व्यक्तिकी) अविशिष्टता (समानता) होती है ( उसी प्रकार) व्यावृत्ति(भेद)बुद्धिसे विशिष्टताकी प्राप्ति होती है।' सर्वान्तवत्तद्गुरण - मुख्य- कल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वाssपदान्तकरं निरन्त सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैत्र ॥ ६१ ॥ ' ( हे वीर भगवन्!) आपका तीर्थ- प्रवचनरूप शासन - अर्थात् परमागमवाक्य जिसके द्वारा संसार महासमुद्रको विरा जाता है— सर्वान्तवान् है - सामान्यविशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एक-अनेक, आदि अशेष धर्मोको लिये हुये है - और गौण तथा मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये हुये है-एक धर्म मुख्य है तो दूसरा गौस है, इसीसे सुव्यवस्थित है, उसमें प्रसंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है । जो शासन- वाक्य धर्मो में पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता - उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाता है वह सर्व धर्मोसे शून्य है-उसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नही बन सकता और न उसकेद्वारा पदार्थव्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही 'यह शासनतीर्थ सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है, यही निरन्त है- किसी भी मियादर्शनके द्वारा खंडनीय नही है-और यही सब प्राणियोके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक है ऐसा सर्वोदयतीथ है।' भावार्थ:- आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयों (परस्पर निरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त ( निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शनी सँसारमे अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोका अन्त करनेवाला होनेसे आपका अर्थात जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते शासन समस्त आपदाओंका अन्त करनेवाला है, हैं दूर उसे पूर्णतया अपनाते हैं— उनके मिध्यादर्शनादि होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं। और वे अपना पूर्ण अभ्युदय - उत्कष एवं विकास- सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं । कामं द्विपमप्युपपत्तिचक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ||६२||
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy