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________________ किरण १० ] समन्तभद्र-मारतीके कुछ नमूने [३६७ (हे वीर जिन!) आपके इष्ट-शासनसे यथेष्ट के संसारबन्धनोंको तोड़ना-हमें भी इष्ट है और इस अथवा भरपेट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी. यदि सम- लिये यह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका एक दृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ; उपपनि-चक्षुसे-मात्सर्यके हेतु है। इस तरह यह स्तोत्र श्रद्धा और गुणज्ञताकी त्यागपूर्वक युक्तिसङ्गत समाधानकी दृष्टिसे-आपके अभिव्यक्तिके साथ लोक-हितकी दृष्टिको लिये हुये है।' इष्टका-शासनका-अवलाकन और परीक्षण करता इति स्तत्यः स्तत्यखिद-मनि-मख्येः प्रणिहितः है तो अवश्य ही उसका मानशृङ्ग खंडित होजाता है - स्तुतः शक्तया श्रेयःपदमधिगस्त्वं जिन ! मया । और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी महावीरो वीरो दुरित-पर-सेनाऽभिविजये. सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है। विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधी॥६४ अथवा यों कहिये कि आपके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है।' 'हे वीर जिनेन्द्र श्राप चूंकि दुरितपरकी-मोहा दिरूप कर्मशत्रुकी-सेनाको पूर्णरूपसे पराजित न रागानः स्तोत्रं भवति भव-पाश-च्छाद मुना करनेमें वीर हैं-बीर्यातिशयको प्राप्त हैं-निःश्रेयस न चाऽन्येषु पादपगुरप-कथाऽभ्यास-खलता। पदको अधिगत (स्वाधीन) करनेसे महावीर हैं और किमु न्यायाऽन्याय-प्रकृत-गुणदोषज्ञ-मनसा देवेन्द्रों तथा मुनीन्द्रो (गणधर देवादिकों) जैसे स्वयं हिताऽन्वेषोपायस्तव गुण-कथा-सङ्ग-गदितः ॥६३॥ स्तुत्योके द्वारा एकाप्रमनसे स्तुत्य हैं, इसीसे मेरे___(हे वीर भगवन । ) हमारा यह स्तोत्र श्राप जैसे मुझ परिक्षाप्रधानीके द्वारा-शक्तिके अनुरूप स्तुति भव-पाश-छेदक मुनिके प्रति रागभावसे नहीं है, न किये गये हैं। अतः अपने ही मार्गमें-अपने द्वारा हो सकता है:- क्योकि इधर तो हम परीक्षा-प्रधानी अनुष्ठित एवं प्रतिपादित सम्यग्दर्शन-शान चारित्र हैं और उधर आपने भव-पाशका छेदकर संसारसे रूप मोक्षमार्गमे, जो प्रतिनिधिरहित है-अन्ययोगअपना सम्बन्ध ही अलग कर लिया है; ऐसी हालतमें व्यवच्छेदम्पसे निर्णीत है अर्थात् दूसरा कोई भी आपके व्यक्तित्वके प्रति हमारा राग-भाव इस मार्ग जिसके जोड़का अथवा जिसके स्थानपर प्रतिस्तोत्रकी उत्पत्तिका कोई कारण नहीं हो सकता। ष्ठित होनेके योग्य नहीं है-मेरी भक्तिको सविशेष दमरोके प्रति द्वेषभावसे भी इस स्तोत्रका कोई रूपसे चरितार्थ करो-आपके मार्गकी अमोघता सम्बन्ध नही है:-क्योंकि एकान्तवादियोक साथ और उससे अभिमत फलकी सिद्धिको देखकर मेरा अर्थात उनके व्यक्तित्व के प्रति हमारा कोई द्वेप नहीं है अनुराग (भक्तिभाव) उसके प्रति उत्तरोत्तर बढ़े, -हम तो दुर्गुणोंकी कथाके अभ्यासको खलता' जिससे मैं भी उसी मागकी आराधना-साधना करता समझते है और उस प्रकारका अभ्यास न होनेसे हुआ कर्म शत्रुओकी सेनाको जीतने में समर्थ वह 'खलता' हममें नहीं है, और इसलिये दूसरोके प्रति हाऊँ और निःश्रेयस (मोक्ष) पदको प्राप्त करके सफल द्वेषभाव भी इस स्तोत्रकी उत्पत्तिका कारण नहीं हो मनोरथ हो सकूँ। क्योंकि सच्ची सविवेक-भक्ति ही सकता। तब फिर इसका इंतु अथवा उद्देश ? उद्दश मागका अनुसरण करनेमे परम सहायक होती है यही है कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना और जिसकी स्तुति की जाती है उसके मार्गका अनचाहते है और प्रकृत पदार्थके गुण-दोषो को जानने- सरण करना अथवा उसके अनुकूल चलना ही स्तुतिकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह स्तात्र को सार्थक करता है, इसीसे स्तोत्रके अन्तमें ऐसी 'हितान्वेपणके उपायस्वरूप' आपकी गुणकथाके फलप्राप्तिकी प्रार्थना अथवा भावना की गई है। माथ कहा गया है। इसके सिवाय जिस भव-पाशको इति युक्त्यनुशासनम्। आपने छेद दिया है उसे छेदना-अपने और दमरों जुगलकिशोर मुख्तार
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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