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'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ?
(लेखक-श्री नेमचन्द बालचन्द गांधी, वकील) .
प्रो. हीरालालजीने कोई ७ वर्ष पूर्व षट्खंडागम- उसपर टीका होनेपर भी उसका जब मूलप्रतिसे के प्रथम भाग जीवट्ठाणकी प्रथम पुस्तक प्रसिद्ध की मुक़ाबिला कराया गया और मूलप्रतिमे संजद' शब्द थी। इसके ३३२वें पृष्ठपर ६३वाँ सूत्र छपा है, जो का होना निीत होगया तव वस्तुस्थितिसे सब परिनीचे उद्धृत किया जाता है
चित होगये। इतना होनेपर भी श्री पं. मक्खनलालजी "सम्मामिच्ष्ठाइट्ठि-असंजमसम्माइटि
शास्त्री प० पू० प्राचार्य महाराजजीसे निवेदन करते संजादासंजद'-द्वाणे णियमा पज्जतियाओ ME३॥ है कि "ताम्रपत्र निमापक कमेटीको आदेश देकर इस सूत्रपर सम्पादको द्वारा दीगई .१ अत्र 'संजद' पद जिस ताम्रपत्रपर खुदा हो उसको "संजद" इति पाठशेषः प्रतिभाति' इस टिप्पणीको
अलग करा देवें।" देखते ही दिगम्बर जैन समाजमें एक धूम मच
मूल ताडपत्रकी प्रतिमें 'संजद' पद है और उसी गई। उसका यह खयाल हुआ कि प्रोफेसर साहबका के अनुसार ताम्रपत्रपर भी खोदा गया है। ऐसी इस सूत्रमें "संजद" शब्दको बढ़ानेमें कुछ हेतु है। हालतमें उस ताम्रपत्रको ही अलग करा देनेका अनुक्योंकि इस शब्दके बढ़ानेसे दिगम्बर आम्नायके रोध कुछ समझ नहीं आता । गनीमत है कि मूल विरुद्ध द्रव्यस्त्रीको मुक्ति प्राप्त होना सिद्ध होगा। इस ताडपत्रके अलग करा देनेका अनुरोध नही भयके कारण पं० मक्वनलालजी शास्त्री मारना और किया गया । पं० रामप्रसादजी शास्त्री बम्बईने लेख और ट्रैक्ट सिद्धान्तसूत्रसमन्वयके खण्डनपर विद्वद्वर पं. लिखे और 'संजद' शब्दको हटानेकी प्रेरणा की। यह पन्नालालजी सानी न्यायसिद्धान्त-शास्त्रीने 'षटधूम सिर्फ ममाज तक ही महदूद (सीमित) नहीं रही खण्डागम रहस्योद्घाटन" नामकी एक पुस्तिका २३२ किन्तु परमपूज्य आचार्य श्री १०८ शांतिसागर पेजकी लिखकर प्रकाशित की है, जिसमे बहत ही महाराजजी तक पहुँचा दी गई । और उनको यह स्पष्टतासे यह माधार सिद्ध किया है कि सूत्र ६२-६३ सुझाया गया कि अगर सूत्रमें यह 'संजद' शब्द का सम्बन्ध भावस्त्रीसे है, न कि द्रव्यस्त्रीसे। जो जीव बढ़ाया जाय तो बड़ा अनर्थ होगा, और श्वेताम्बर द्रव्यपुरुष हाकर भावस्त्री हो उसके चौदह गुणस्थान
आम्नाय-मम्मत स्त्री-मुक्तिकी पुष्टि होकर दिगम्बरा- हो सकत है और जो जीव द्रव्यस्त्री हो वह पाँचवे म्नाय नेस्तनाबूद हो जायगा।
गुणस्थानके आगे नहीं जासकता। ___ पं० मक्खनलालजीने जो ट्रेक्ट लिखा वह १७० इसलिये सूत्र ६३में स्थित "संजद” पद किसी पेजोंका है। उसका नाम है-सिद्धांतसूत्रसमन्वय” प्रकार द्रव्यस्त्रीकी मुक्ति नहीं सिद्ध कर सकता । इसे आपने बड़ी भक्तिसे श्रीशांतिसागरजी महाराजके अतएव उसे दूर करनेका आग्रह निष्प्रयोजन है। करकमलोंमें समर्पित किया है।
प्रत्युत उस पदके दूर होजानेपर ही दिगम्बर आम्नाय प्रो० हीरालालजीने "संजद” पदकी आवश्यकता तथा षट्खण्डागममे विसङ्गति आदि अनेक दोष खड़े को अपनी टिप्पणीमें दिखाकर एक प्रकारसे प्रशस्त होजाते है, जोकि अनर्थकारी ही सिद्ध होते हैं। कार्य ही किया। लेकिन उसके बाद समाजकी ओरसे ये सब बाते पण्डितप्रवर सोनीजीने अपने ट्रैक्टमें