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किरण ]
पाँच प्राचीन दि. जैन मूर्तियाँ
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कोई उल्लेख नहीं है । अतः प्रतिमाकी निर्माणकलापर- इस प्रकार पॉची खडगासनस्थ दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। से ही इसकी शताब्दी निति करनी होगी। मैं और इस प्रकार पाँच चित्र प्रतिमाओंके मेरे सम्मुख चित्रवाहक सजन इसे अन्तिम गुप्तकालीन कृतियोंमें आये, जैसा मुझपर प्रभाव पड़ा और समझा वह समाविष्ट करते हैं। पूर्वीय कलाका प्रभाव है। इस आपके सामने है । छठवाँ चित्र एक ताम्र पत्रका था, टाइपकी और भी अनेक शिल्पकृतियाँ मगधमें फोटू इतना रही और अस्पष्ट था कि उनको ठीकसे उपलब्ध होचुकी हैं।
पढ़ना असम्भव था। कार्डसाइजमें ३४ पंक्तियोंकी ___ लम्बाई. चौड़ाई और मुटाई इस प्रकार चित्रके कृतिको कैसे पढ़ा जासकता था, परन्तु इतना अवश्य पृष्ठ भागमें उल्लिखित थीं- २२|. १६॥ ४ इंच है। प्रतीत हुआ कि समय १२३८ आषाढ़ कृष्णा अमावस्या
२-प्रस्तुत प्रतिमा उपर्युक्त प्रतिमाके अनुरूप है। का है । चन्द्रदेव नृप, गोबिन्दचन्द, मदनपाल और विदित होता है कि एक ही कलाकारकी दो कृतियाँ हैं। नृपचन्ददेवके नाम पढ़े गये। उपर्युक्त सभी सामग्री अन्तर केवल इतना ही है कि ऊपर वाली मूर्तिमें विक्रयाथें ही किसीके संग्रहमें रखी है। नामका मुझे पद्मासनस्थ २ प्रतिमाएँ हैं जब इसमें चार हैं और स्वयं पता नहीं सुना है ६०० रुपये मूल्य है। ताम्रनिम्नभागमें भी धर्मचक्रके दोनो ओर पद्मासनस्थ पत्र अलग ६०० रुपये। प्रतिमा है। पास नहीं हैं। परन्तु भव्यतामें कुछ मेरे ही सहश और भी पुरातत्वप्रेमियोंको ऐसे उतरती हुई है। समय वही प्रतीत होता है। नाप. अनुपलब्ध प्रतिमाओ तथा संस्कृतिकी सभी शाखाओं१२ १२ .२ इंच है।
से सम्बन्ध रखनेवाले अवशेष या चित्र दृष्टिमे पाते ३-एक लघुतम प्रस्तर चट्टानपर उत्कीर्णित है। ही होगे। मेरा उनसे अनुरोध है कि वे इस प्रकारक इमकी रचना दोनोंसे सर्वथा भिन्न है। उभय कंध. नोट्स ही-यदि होसके तो चित्र भी-अनेकान्त मे प्रदेशसे सटी हुई २ प्रतिमा और निम्न भागमें यक्ष
प्रकाशनार्थ अवश्य ही भेजकर सांस्कृतिक उत्थानमें यक्षिणि है । ग्रास धर्मचक्र समान हैं। मलका मग्य सहयाग द । वरना सामग्री यों ही संसारसे विदा हो बडा शान्त है. पर इसकी नामिका कुछ चपटी है जो
जायगी। यद्यपि इस प्रकारके शाब्दिक चित्रोसे कलाबुद्ध धर्मकी आंशिक देन है क्योंकि बौद्ध कलावशेषों
कारोंको उसके रहस्योंका सूक्ष्म परिज्ञान भले ही न में चपटी नाक आती है जैमाकि बुद्धदेवकी जातिका हो पर पुरातत्वके मुझ जैसे सामान्य व्यक्तियोंको ही गुण है । नेपालका प्रभाव माना जाय तो आपत्ति
अग्रिम अध्ययनमें बड़ी सहायता मिलती है। यो तो नही। नाप १३१. ६.३ इन्च है । नग्न है। इसे मैं बिहार प्रान्तके खण्डहरोंमें और पटना भ्यजियममें पाल कालीन प्रतिमा मानता हूँ।
भी अनेकों सुन्दर कलापूर्ण जैन प्रतिमाएँ पाई जाती ४-यह प्रतिमा कलाकौशलकी द्रप्रिसे उतनी है जिनका विस्तृत सचित्र परिचय मैं बिहारकी तीर्थ महत्वपूर्ण भले ही न हो पर मर्तिनिर्माणशासक भूमिमें" शीर्षक निबन्धमें दूंगा। उल्लेखोके सर्वथा अनुरूप है। इसकी उठी हई छाती पटना सिटी, ता० २७-७-४८ एक सैनिकका स्मरण दिलाती है। मुझे तो कहते १ जैन समाजका एक भी सार्वजनिक पुरातत्वविषयक तनिक भी संकोच नहीं कि इसके निर्माणपर गोम्म- संग्रहालय नहीं है । यह अफसोसकी बात है। वरना ऐसी टेश्वर महाराजकी प्रतिमाका असर स्पष्ट है। मुख और सामग्रियाँ भटकती न फिरतीं। परन्तु अब ४.५ लाख शारीरिक रचनासे एवं हस्तोंपर बिखरी हुई लताएँ रूपयेका चन्दा करके क्यों न इस ओर कदम बढ़ाया भी इसकी पुष्टि करती हैं। रचनाकाल १२ शती होगा। जाता, थोड़ा-थोड़ा संग्रह भी आगे विशाल संग्रहका रूप
५-यह प्रतिमा खडगासनस्थ है। मोटी आकृति धारण कर लेता है। 'भारतीयज्ञानपीठ' के कार्यकर्तामोहै। काल १३ शती है।
का ध्यान मैं इन पंक्तियों द्वारा प्राका करना चाहता हूँ।