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यही अन्दाज लगाया कि चित्र उसने इस भयसे शायद न रखें होंगे कि मैं कहीं उनकी प्रतिकृति उतरवा लूँ या ब्लॉक बनवा लूँ, अस्तु ।
ये मेरा मन उन्हींमें लगा रहा, सोच रहा था क्या ही अच्छा हो यदि रात छोटी होजाये और दिन निकलते ही मैं अभिलषित कार्यको कर डालू, पर अनहोनी बात थी ।
श्रनेकान्त
तारीख २६-०-४८ को मैं बिहार प्रान्तके बहुत बड़े कलात्मक वस्तुसंरक्षकके यहाँपर सहयोगी बाबू पदमसिंह बललियाको लेकर पहुंचा ही । १२ बजनेका समय रहा होगा, मैं तो चाहता था कि वे श्रीमन्त मुझे चित्र अवलोकनार्थ देकर आरामकी नींद लें ताकि मैं शान्तिपूर्वक अपना काम निपटालं, पर वे भी थे धुनके पक्के, बहुत धूप-छाँह देख चुके थे, मैं तो उनके सामने बचा था। चित्र मेरी टेबिलपर श्रा गये और पाँच-सात मिनटके बाद वापिस लेनेकी भी तैयारी करने लगे। मैंने कहा, देखिये, ये काम उतना आसान नहीं कि पाँच-दस मिनटमें इनको समुचित रूपसे समझ लिया जाय । वे फिर अपने कामपर गये और मैं अपना और सारा काम छोड़कर प्रतिमा-चित्रोंका परिचय लिखने लगा. बीच-बीचमे वे आये और
के मस्तिष्ककी रेखाओ में मैं पढ़ रहा था कि जो कुछ काम मैं कर रहा हूँ वह आपको मान्य नही है । पर मैं भी मुँह नीचे दबाये लिखता ही गया. जो कुछ भी लिखा वही आपके सामने समुपस्थित करते हुए मैं श्रानन्दका अनुभव करता हूं। हो सकता है इनके परिचयसे और संस्कृतिप्रेमी भी मेरे श्रानन्दमें भाग बटावें ।
[ वर्ष ६
गठन और तदुपरि जो पालिशकी स्निग्धता है उससे सौंदर्य स्वाभाविकतया खिल उठता है । हाथ घुटने तक लगते हैं और इस प्रकार से अङ्गुलियाँ रखी हुई हैं मानो यह सजीव है । प्रतिमाका मुखमण्डल बहुत ही आकर्षक और शान्तभावोंको लिये हुए हैं। होठोंसे स्मितहास्य फरक उठता है । मस्तकपर घुंघरवाले केशो कीर्णित हैं । उष्णीश भी है। ऑंखें कायोत्सर्ग मुद्राकी स्मृति दिलाती हैं। वाम और दक्षिण भाग में यक्षिणी-यक्ष चामर लिये अवस्थित हैं । चामर जटिल हैं। दोनोंकी प्रभावलि और मुखमुद्रा शान्त है परन्तु यक्षिणीकी जो मुद्रा कलाकारने अङ्कित की है उसमें स्त्री-सुलभ स्वाभाविक चाश्वल्य विद्यमान । उभय प्रतिमाओके उत्तरीय वस्त्र बहुत स्पष्ट है । गले में माला, कर्ण में केयूर और भुजदण्डमे बाजूबन्ध हैं । यक्षिणीकी जो प्रतिमा है उसके वाम चरणके पास एक स्त्री स्त्रियोचित समस्त आभूषणोसे विभूषित होकर अंजली धारे भक्तिपूर्वक नमस्कार-वन्दना करती हुई बनाई गई है। मुखमण्डल पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से अवभासित होता है कि उनके हृदय में प्रभुके प्रति कितनी उच्च और आदर्शमय भावनाएँ अन्तर्निहित हैं। ऐसी प्राकृतिक मुद्राएँ कम ही देखनेमे आती हैं। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह स्त्री कौन होसकती है ? मेर मतानुसार तो यह मूर्तिनिर्माण करवानेवाली श्राविका ही होनी चाहिए; क्योंकि प्राचीन और मध्यकालीन कुछ प्रतिमाएँ मैंने ऐसी भी देखी हैं जिनमे निर्मापकयुगल रहते हैं । उभय प्रतिमाओके उपरि भागमें पद्मासनस्थ दोनो ओर दो जिन प्रतिमाएँ हैं । तदुपरि दोनों ओर आकाशकी आकृतिपर देवियाँ हस्तमें पुष्पमाला लिये खड़ी हैं, उनका मुखमण्डल कहता है कि वे अभी ही भगवानको मालाओसे सुशोभित कर अपने भक्तिसिक्त हृदयका सुपरिचय देंगी। मालाच्योंके पुष्प भी बहुत स्पष्ट हैं । मस्तकपर छत्राकृति है । मूल प्रतिमाका निम्न भाग उतना
कर्षक और कलापूर्ण नहीं । मध्यमें धर्मचक्र और उभय तरफ विपरीतमुखवाले प्रास हैं । परन्तु प्रतिमापर निर्माणकाल - सूचक खास संवत् या वैसा
१ - यह प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथजीकी है जैसा कि मस्तकोपरि सप्त फनोंसे सूचित होता है । निम्न भाग सर्पाकृति नहीं है। यह प्रथा ही प्राचीन कालीन प्रतिमाओं नहीं थी या कम रही होगी। उप युक्त फने इतने सुन्दर बने हैं कि मध्य भागकी रेखाएँ भी सुस्पष्ट हैं । सर्पाकृति पृष्ठ भागीय चरणसे प्रारम्भ हुई है जैसा कि ढकगिरिमें प्राप्त प्रतिमाओं में पाई जाती है। प्रतिमा सर्वथा नम है। इसका शारीरिक