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________________ पाँच प्राचीन दि० जैन मूर्तियाँ * * (लेखक-मुनि कान्तिसागर) ___ ता० २५-७-४८ रविवारका दिन था. मैं कुछ लेटे की चेष्टा करती है । वह सफल कहाँ तक होता है इसका हुए. डॉ. भांडारकरका जैन मूर्तिशासका वह नोट पढ़ निर्णय करना एतद्विषयक रुचि रखनेवाली जनताका रहा था जो 'बायोलोजिक सर्वे ऑफ इंडिया' काम है। सफल कलाकारका जीवन भी कई विलक्षणइतिवृत्तमें प्रकट हुआ है । था भी निश्चिन्त, रविवारके ताओंका एक समन्वयात्मक केन्द्र है । उसके मस्तिष्कदिन मैं भी अपनी लेखनीको कष्ट नहीं देता । यों तो की रेखाएँ ही इसका सूचनात्मक प्रतीक है । वह कभी "आराम" जैनमुनियोकी जीवन-विषयक डिक्शनरीमें तो शान्त-मुद्रा में रहता है, कभी गांभीर्य भावोंकी मूर्तिनही होता, भगवान महावीरने स्पष्ट शब्दोमें बारबार सम प्रतीत होने लगता है और सबसे बड़ी विशेषता कहा है "समयं गोयम मा पमाए" हे गौतम क्षणमात्र है वह अप्रसन्न कभी नहीं होता, जैसे कोई शिकारी भो प्रमाद न कर । उपयुक्त नोट पूरा करके ऑखें बन्द शिकार न मिलनेपर भी--निराश होना मानो उसके होना ही चाहती थीं. रोकना भी मैंने उचित नहीं जीवनके बाहरकी ही वस्तु हो। यदि स्पष्ट कह दिया समझा. इतनी देग्में मेरे सामने एक सज्जन श्रा पहुंचे जाय तो कलाकारका हृदय एक समुद्रके समान जो पुरातत्वमे ही एम० ए० है, इसी विषयपर गम्भीर होता है। नदी-नाले जैसे एकत्र होकर रत्नाकरप्राचार्यत्वके लिये थीसिस-महानिबन्ध-भी लिखी मे विलीन होजाते हैं ठीक उसी प्रकार ज्ञान-विज्ञानकी है। मेरा मन तो था कि कह दूंकल आइये परन्तु आपने समस्त धाराएँ उसके हृदयमें समा जाती हैं. बिना आते ही मेरे सम्मुख छह चित्र उपस्थित कर दिये। इनके संगमके वह सफल कलाकार माना ही नहीं मुझे तो अत्यानन्द हुआ; क्योंकि पुरातत्त्व-संशोधनका जासकता; तभी तो वह प्रस्तर और धातुओंपर गंग जिसे लगा हो वह तो अपनी गवेषणा-विषयक प्रवाहित भावांका समझकर विवेचना करनेको उद्यत रुचिका पूर्तिके लिये पहाड़ों और खण्डहरांमें घूमता रहता है । भावनाशील हृदय प्रत्येक स्थानको अपने ही रहता है उसके लिये मागमें आनेवाली बाधाएँ विशेष दृष्टिकोणसे देवता है। यही कारण है कि कोई मूल्य नहीं रखती, जब मुझे तो घर बैठे ही ये जहाँ कीचड़ भी न हो वहाँ वह उत्तम मरोवर देखता चीजे प्राप्त होगई और वह भी जैन पुरातत्वसे है। कहनेका तात्पर्य यह कि जहाँपर पाषाणोंका या सम्बन्ध रखने वाली.फिर प्रसन्नता क्यों न हो? दिल कलात्मक अवशेषांका ढेर हो वे है तो प्रस्तर पर उछलने लगा। मैंने बहुत चेष्टा की कि मै इन्हें अभी अपने कलाकारके लिये वे तात्कालिक सांस्कृतिक प्रवाहोंका पास ही रखू कल लौटा दूंगा. पर जो सज्जन ये चित्र प्रधान केन्द्र मालूम देते हैं। कलाकारको दुनिया ही लाय थे उनके स्वामीकी आज्ञा रखनेकी न थी. नवे निराली है। इसमें जा कुछ क्षण विचरण करनेका मुझे अभी नोट्स लेने देना ही चाहते थे। मैंने इन्हें सौभाग्य प्राप्त करता है वही उपयुक्त पक्तियोका खूब गौरसे देखा कि इनकी कला वगैरहका ठीकसे साक्षान अनुभव करनेकी क्षमता रखता है। अध्ययन करलू और बादमें कुछ पंक्तियाँ लिख लूंगा हाँ तो अब मैं अपने मूल विषयपर आजाऊँ, जिससे और अपरिचित जन भी इनके परिचयसे मुझे नोट्स न लेने दिये तब कुछ रञ्ज-सा अवश्य लाभान्वित हों. परन्तु मेरा अनुभव है कि जब तक हुआ इसलिये कि इतनी सुन्दर जैनकलात्मक कृतिएँ मुल वस्तु-अवशेष-सम्मुख उपस्थित न हो तब तक होते हुए भी आज जैनी इनसे क्यो अपरिचित रहें? उनका वास्तविक परिचय उचितरूपेण लिपि नहीं क्या प्रतिमा-निर्माण करवानेवालोंका यही उद्देश्य किया जा सकता. क्योंकि कलाकार (पाठक भूलसे था? बिल्कुल नहीं। परन्तु जब मैंने जाना कि उसके मुझे ही कलाकार न समझ बैठे) जब सामनेको वस्तु स्वामीके यहाँ दो दिन चित्र रह सकते हैं और मैं देखता है और कलम हाथमें उठाता है तब उसकी वहाँ जाकर नोट कालूं तो उन्हें आपत्ति नहीं होगी, तब मनोवृत्तियाँ केन्द्रित होकर उसके भीतर प्रवेश करने- मैंने भी स्वीकार कर लिया । बादमे मैंने अपने दिलमें
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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