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________________ किरण ८ ] 'संजद' शब्दपर इतनी आपत्ति क्यों ? इतनी विशद रीतिसे स्पष्ट की हैं कि उस विषयमें और हैं, यह क्यो ? कुछ लिखना पिष्टपेषण करना होगा । पं० मक्खनलालजीने अपने "सिद्धान्तसूत्रसमन्वय" ट्रैक्टमे “निर्णय देनेके आचार्य महाराज ही अधिकारी हैं" इस शीर्षकका एक प्रकरण लिखकर यह सिद्ध करना चाहा है कि 'संजद' पदका विवाद सिद्धान्तशास्त्र - सम्बन्धी है । अतः इसके निर्णयका अधिकार प० पू० चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ शांतिसागरजी महाराजको ही है। कारण कि वे वर्तमानके समस्त साधुगण एवं आचार्य - पदधारियो में सर्वोपरि शिरोमणि हैं । इत्यादि । लेकिन सुना जाता है कि प० पू० आचार्यश्रीने फर्माया है कि इसका निर्णय हम नही कर सकते । यह काम पंडित लोगोका है । संस्कृत और प्राकृत भाषाके जानकार पंडित लोग ही होते है । अतः वे ही लोग इसका निर्णय करले । मातृप्रतिसे मिलान करनेके बाद 'संजद' पदको ताम्रपत्र से निकलवा देनेका पू० आचार्यजीसे अनुरोध करना व्यर्थ ही नहीं किन्तु अनर्थकारक होगा । मातृप्रतिके विरोधी ताम्रपत्रको कोई भी पसन्द नहीं करेगा। मैं तो पं० मक्खनलालजीसे सविनय अनुरोध करता हूँ कि आप एक पत्रक निकालकर यह प्रकट कर दीजिये कि "सिद्धान्तसूत्रसमन्वयमे हमने जो विचार प्रकट किये है वे 'पट्खण्डागम रहस्योद्घाटन' को विचारपूर्वक पढ़नेके बाद अब कायम नहीं रहे हैं । हवाँ सूत्र वस्तुतः भावबीसे सम्बन्ध रखता है, द्रव्यसे नहीं ।" प्रो० हीरालालजीसे भी सविनय विनती है कि भगवान् श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, श्रीसमन्तभद्राचार्य. श्री पूज्यपाद भट्टाकलङ्कदेव, वीरसेनाचार्य, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती आदिकोंको क्या आप आधुनिक आचार्य अतएव अप्रमाण समझते हैं । षट्खण्डागम की प्रस्तावना में तो इन आचार्यप्रवरोंकी स्तुति करके आपने उनके प्रन्थों और वचनोको प्रमाण माना है । और अब भाववेद और द्रव्यवेदकी व्यवस्थाके विषयमें उनके वचनोंको प्रमाण माननेको श्राप तय्यार नहीं [ ३१५ पुरिसिच्छिढवेदोदयेण पुरिसिच्छिद भावे । णामोदयेण दव्वे पायेण समा कहिं विसमा ॥ गोम्मटसार - जीवकाण्डकी इस गाथासे वेदवैषम्य स्पष्टतया सिद्ध होनेपर भी उसे न मानना अनुचित है । गोम्मटसारप्रन्थ श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती जीकी अनुपम कृति है, जो षट्खण्डागमप्रन्थराजका पूर्णमन्थन करके ही उसके साररूपमें तय्यार की गई है । नेमिचन्द्राचार्यने भी इस बातको गोम्मटसारकर्मकाण्ड गाथा ३९७में बड़े गौरवसे कहा है - "जह चक्के य चक्की लक्खंडं साहियं विग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ " "जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्रके द्वारा पट्खण्ड पृथ्वीको सिद्ध कर लेता है । उसी प्रकार मतिरूपी चक्र के द्वारा मैंने छह खण्ड अर्थात् षट्खंडागम को सम्यक्रूपसे साध लिया है ।" श्रीनेमिचन्द्राचार्यको "सिद्धान्तचक्रवर्ती” यह उपाधि भी इसी हेतुसे प्राप्त हुई, जो उनके सिद्धान्तfaras पारगामित्वकी द्योतक है । अतएव उनके गोम्मटसारादि ग्रन्थोके प्रति अविश्वास प्रकट करना ही है। प० पू० आचार्य श्री शान्तिमागर महाराजजीके चरणों में भी सविनय विनती है कि मातृप्रतिमें 'संजद' पदका होना सिद्ध हो चुका है और उक्त सूत्रमे उसका स्थिर रहना टीकादिपरसे सङ्गत और आवश्यक है। तथा विद्वत्परिषद् ने भी अपना यही निर्णय दिया है तो अब उस ताम्रपत्रको बदल देने या उसपर कुछ टिप्पणी देनेका आग्रह अथवा प्रयत्न अनुचित ही होगा । पं० मक्खनलालजीने जो यह लिखा है कि हवें सूत्रमें 'संजद' पदको कायम रखनेसे द्रव्यस्त्रीको मुक्ति सिद्ध होगी सो बिलकुल गलत है। पं० सोनीजीने इस आक्षेपका शास्त्राधार पूर्वक अच्छी तरहसे खंडन किया है। अतएव यह भ्रम दूर होजाना चाहिये । पं० मक्खनलालजी विद्वान हैं और इस लिये उन्हें
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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