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________________ २०२ भनेकान्त असर अथवा संस्कार पड़े। चली !!! उसी वक्त तुम्हारे मृत शरीरको अन्तिम जब तुम नानौतासे मेरी तथा दादी आदि के साथ संस्कारके लिये शिक्रममे रखकर सरसावा लाया देहली होती हुई पिछली बार मेरी साथ ता० २२ मई गया-साथमे दादीजी और एक दूसरे सजन भी थे। सन् १९२८को सरसावा आई तब मैंने तुम्हे यों ही खबर पाते ही जनता जुड़ गई। कुटुम्ब तथा नगरके विनोदरूपमे अपनी लायब्रेरीकी कुछ अलमारिया कितने ही सज्जनोंकी यह राय थी कि तुम्हाग दाहखोलकर दिखलाई थी. देखकर तमने कहा था मस्कार न करके पुरानी प्रथाके अनुसार तुम्हारे मृत"तुम्हारी यह अलमारी बड़ी चोखी हैं।" इसपर मैंने देहको जोहड़के पास गाड़ दिया जाय और उसके जब यह कहा कि बेटी ! ये सब चीजे तुम्हारी है, तुम आस-पास कुछ पानी फेर दिया जाय; परन्तु मेरे इन मब पुस्तकोंको पढना' तब तुमने तुरन्त ही उलट आत्माको यह किसी तरह भी रुचिकर तथा उचित कर यह कह दिया था कि "नहीं, तुम्हारी ही तुम्ही प्रतीत नहीं हुआ, और इलिये अन्तको तुम्हारा पढना।" तुम्हारे इन शब्दोको सनकर मेरे हदयपर दाह-संस्कार ही किया गया, जो सरसावामे तुम्हारे एकदम चोटसी लगी थी और मैं क्षणभरके लिये यह जैसे छोटी उम्रके बोंका पहला ही दाह-संस्कार था। मोचन लगा था कि कहीं भावीका विधान ही तो इस तरह लगभग ढाई वर्षकी अवस्था में ही ऐमा नहीं जो इस बच्चीक महस ऐसे शब्द निकल तुम्हारा वियोग होजानेसे मेरे चित्तका बहुत बड़ा रहे है। और फिर यह खयाल करके ही सन्तोष धारण आघात पहुँचा था; क्योंकि मैने तुम्हारे ऊपर बहनसी कर लिया था कि तुमन श्रादर तथा शिष्टाचारक आशाएँ बाँध रखी थीं और अनेक विचागेको रूपमें ही ऐसे शब्द कहे है । इस बातको अभी कार्यम परिणत करनेका तुम्ह एक श्राधार अथवा महीनाभर भी नहीं हुआ था कि नगरमे चेचकका साधन समझ रवा था। मै तुम्हे अपने पास ही पकांप उशा वरपर भाई होगनलालजीकी रखकर एक आदश कन्या और स्त्री समाजका उद्धार लड़कियोंको एक-एक करके खसरा निकला तथा कठी करने वाली एक आदश स्त्रीके रूपमे देखना चाहता नमदार हुई और उन सबके अच्छा होनेपर तम्हे भी था और तुम्हारे गुणोंका तेजीमे विकास उस सबके उस रोगन बा घेरा-कराठी अथवा मोतीझारेका अनुकूल जान पड़ता था। परन्तु मुझे नहीं मालूम ज्वर हो पाया ! इधर दादीजीका पत्र पाया कि वे था कि तुम इतनी थाड़ी श्राय लेकर आई हो । बहन गुणमाला तथा चि. जयवन्तीको १० चन्दा- तुम्हारे वियागम उस ममय मुहद्वर पं० नाथूरामजी बाईक पास श्रारा छोड़कर वापिस नानौता आगई प्रेमी बम्बईने विद्यावती वियोग' नामका एक लेख है और पत्रमे तुम्हें जल्दी ही लेकर आनकी प्रेरणा की जैन हितैषी (भाग १४ अक ५)मे प्रकट किया था। गई थी। मैंन भी सोचा कि इस बीमाराम तुम्हारी और उसमे मेरे तात्कालिक पत्रका कितना ही अश अच्छी सेवा और चिकित्मा दादीजीके पास ही भी उद्धत किया था। सकेगी, और इसलिये मै १७ जूनको तुम्हें लेकर ऋण चुकानानानौता आगया । दो-चार दिन बीमारीको कुछ पुत्रियो । जहाँ तुम मुझे सुख-दुख दे गई हो शांति पड़ी और तुम्हारे अच्छा होनेकी आशा बंधी वहाँ अपना कुछ ऋण भी मेरे ऊपर छोड़ गई हो, कि फिर एकदम बीमारी लौट गई। उपायान्तर न जिसको चुकानका मुझे कुछ भी ध्यान नहीं रहा । देखकर २६ जूनको तुम्हे सहारनपुर जैन शफाखानेमे गत ३१ दिसम्बर सन् १९४७को उमका एकाएक लाया गया, जहाँ २७की रातको तुमने दम तोड़ना ध्यान आया है। वह ऋण तुम्हारे कुछ जेवगे तथा शुरू किया और २८की सुबह होते होतं तुम्हारा प्राण भेट आदिमे मिले हुए रुपये-पैसोंके रूपमे है जो मेरे पखेरू एकदम उड़ गया !! किसीकी कुछ भी न पास अमानत थे, जिन्हें तुम मुझे स्वेच्छासे दे नहीं
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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