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________________ किरण ५ ] तुम हमेशा सच बोलती थी और अपने अपराधको खुशी से स्वीकार कर लेती थी। बुद्धि विकास के साथ-साथ श्रात्मा शुद्धिप्रियता, निर्भयता, निम्पृहता, हृदयोचता और स्पष्टवादिता जैसे गुणोंका विकाम भी तेजासे होरहा था। धायकं चले जानेके बाद तुम मैले-कुचैले वस्त्र पहने हुए किसी भी स्त्री या लडकी की गोद नहीं चढ़ती थी, जिसका अच्छा परिचय शामली के उत्सवपर मिला, जबकि तुम्हे गोद में उठाये चलने के लिये दादीजीने एक लड़कीकी योजना की थी परन्तु तुमने उसकी गांदी चढकर नही दिया और कहा कि 'मै अपने पैरों आप चलूँगी' और तुम हिम्मत के साथ बरावर अपने पैरों चलती रही जबतक कि तुम्हे थकी जानकर किसी स्वच्छ स्त्री या लडकी ने अपनी गोद नहीं उठाया। मुझे बडी प्रसन्नता होती थी, जब मैं अपने यहाँके दुकानदारोंसे यह सुनता था कि 'तुम्हारी विद्या इधर आई थी, हम उस कुछ चीज देनेके लिये बुलाते रहे परन्तु वह यह कहती हुई चली गई कि “हमारे घर बहुत चीज है ।" तुम्हारा खुदका यह उत्तर तुम्हारे सन्तोष, स्वाभिमान और तुम्हारी निस्पृहताका अच्छा परिचायक हाता था। सन्मति विद्या विनोद एकबार बहन गुरणमालाने चि. जयवतीकी पाछापाड घोतीस तुम्हारे लिये एक छोटी धोती मवादी गजके करीब लम्बी तैयार की, जिसके दोनों तरफ चौड़ी किनारी थी और जो अच्छी माफ सुथरी घुली हुई थी। वह धोती जब तुम्हे पहनाई जाने लगी तो तुमने उसके पहनने से इनकार किया और मेरे इस कहनेपर कि 'धोती बडी माफ सुन्दर है पहन लो' तुमने उसके स्पर्शसे अपने शरीरको अलग करते हुए माफ कह दिया "यह तो कत्तर है।" तुम्हारे इस उत्तरको सुनकर सब दङ्ग रह गये | क्योंकि इतने बड़े कपडे को 'कत्तर' का नाम इससे पहले किसीने नहीं सुना था। बहन गुणमाला कहने लगी- 'भाई जी ' तुम तो विद्याको मादा जीवन व्यतीत कराना चाहते हो, इसके कान-नाक बिंधवाने की भी तुम्हारी इच्छा नहीं है परन्तु इसके दिमागको तो देखो जो इतनी बड़ी धोतीको भी 'कत्तर' बतलाती है !' २०१ एक दिन सुबह के वक्त तुम मेरे कमरे के सामनेकी बगड़ीमे दौड़ लगा रही थी और तुम्हारे शरीरका छाया पीछे की दीवारपर पड़ रही थी। पास मे खड़ी हुई भाई हींगनलालजीकी बड़ी लड़कियाँ कह रही थीं 'देख, विद्या' तेरे पीछे भाई आरहा है।' पहले तो तुमने उनकी इस बातको अनसुनीमी कर दिया, जब वे बारबार कहती रहीं तब तुमने एकदम गम्भीर हाकर उपटते हुए स्वर में कहा "नहीं, यह तो छाँवला है।" तुम्हारे इस 'छाँवला' शब्दको सुनकर सबको मी गई | क्योकि छाया, छॉवली अथवा पढलाई की जगह 'छाँवला' शब्द पहले कभी सुननमे नहीं आया था। आमतौर पर बच्चे बतलाने वालोंके अनुरूप अपनी छायाको भाई समझकर अपने पीछे भाईका आना कहने लगते है, यही बात भाईकी लड़कियां तुम्हारे मुग्यसे कहलाना चाहती थीं, जिससे तुम्हारी निर्दोष बाली कुछ फल जाय: परन्तु तुम्हारे विवेकने उसे स्वीकार नही किया और 'छावला' शब्दकी नई सृष्टि करके सबको चकित कर दिया। एक रोज़ से अपने साथ तुम्हे लिची, खरबूजा आदि कुछ फल खिला रहा था, तय्यार फलोंको स्वाते खातं तुमने एकदम अपना हाथ सिकोड़ लिया और मेरे इस पुछनेपर कि 'और क्यों नहीं खाती ?" तुमने साफ कह दिया कि "मेरे पेट में तो लिचीकी भृग्व है ।" तुम्हारी इस स्पष्टवादितापर पुके बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंन लिचीका भरा हुआ बोहिया तुम्हारे सामने रखकर कहा कि इसमेसे जितनी इच्छा हो उतनी लिची खालो। तुमने फिर दो-चार लिची और खाकर ही अपनी तृप्ति व्यक्त कर दी। इससे मुझ बडा सन्तोष हुआ; क्योंकि मै सङ्कोचादिके पश अनिच्छापूर्वक किसी ऐसी चीजको खाते रहना स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं समझता जो रुचिकर न हो। और मेरी हमेशा यह इच्छा रहती थी कि तुम्हारी स्वाभाविक इच्छाओंका विघात न होने पाये और अपनी तरफ काई ऐसा कार्य न किया जाय जिससे तुम्हारी शखियकि विकासमे किमी प्रकारकी बाधा उपस्थित हो या तुम्हारे आत्मापर कोई बुरा
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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