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________________ २०० अनेकान्त वर्ष ९ सुना जाता है कि पहाड़ोंपर बच्चे बदले जाते हैं और तुम अपनी प्रबोध-दशासे इतने अौतक धायके लोभके वश दूसरोंको बेचकर मृत घोषित भी किये पास रही, उसकी गोदी चढ़ी, उसका दूध पिया, जाते है । परन्तु इन सबसे अधिक बड़ी समस्या जो उसके पास खेली-मोई और वह माताकी तरह मेरे मामने है वह सम्कारोंकी है। और सब कुछ दमरी भी तुम्हारी सब सेवाएँ करती रही; फिर भी ठीक होते हुए भी बहाँक अन्यथा संस्कारोंको कौन तुमने एक बार भी उसे 'माँ' कहकर नही दियारोक सकेगा ? मैं नहीं चाहता कि मेरी लड़की मेरे दूमगेंके यह कहनपर भी कि 'यह तो तेरी माँ है' दोषसे अन्यथा संस्कारोंमें रहकर उन्हे ग्रहण करे।' तुम गर्दन हिला देती थी और पुकारनेके अवमरपर और इमलिय अन्तको यही निश्चित हा कि घम्पर उसे 'ए-ए" कहकर ही पुकारती थी। यह सब विवेक धार्य रखकर ही तुम्हारा पालन-पोषण कराया जाय। तुम्हारे अन्दर कहाँस जागृत हुआ था वह किमीका तदनुमार ही धायकं लिये तार-पत्रादिक दौड़ाये गये। भी कुछ समझ नहीं पाता था और सबको तुम्हारी __ भाई रामप्रसादजी आदिके प्रयत्नसे एककी ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्तिपर आश्चर्य होता था। जगह दो धाय आगराकी तरफसे प्रागडे, जिनमेमे दो-ढाई वर्षकी छोटी अवस्थाम ही तुम्हारी बडे रामकौर धायको तहारे लिये नियुक्त किया गया, जो आदमियों जैसी समझकी बाते, मबके माथ 'जी'की प्रौढावस्थाका होने के साथ-साथ श्यामवण भी थी- बोली, दयापरिणति, तुम्हाग मन्तोष, तुम्हारा धैर्य उस समय मैने कहीं यह पढ़ रक्खा था कि श्यामा और तुम्हारी अनेक दिव्य चंद्राएँ किमीको भी अपनी गायके धकी तरह बच्चोंके लिये श्यामवणां धायका पार आकृष्ट किये बिना नहीं रहती थी। तुम माधादूध ज्यादा गुणकारी होता है। अत: तुम्हारे हितकी रण बच्चोंकी तरह कभी व्यर्थकी जिद करती या दृष्टिसे अनुकूल योजना हो जानेपर मुझे प्रसन्नता राती-रडानी हई नहीं देखी गई। अन्तकी भारी हई। धायके न आने तक गाय-बकरीका दूध पीकर बीमारीको हालतमे भी कभी तुम्हारे कूल्हने या तुमने जो कष्ट उठाया, तुम्हारी जानके जो लाले कराहने तककी आवाज़ नहीं सुनी गई: बल्कि जब तक पड़े और उसके कारण दादीजी तथा बहनगुण- तुम बोलती रही और तुम पछा गया कि 'तेरा जी मालाको जो कष्ट उठाना पड़ा उसे मैं ही जानता हूँ। कैमा है। तो तमने बडे धेर्य और गाम्भीर्यसं यही धायके आजानेपर तुम्हे साता मिलते ही मबका उत्तर दिया कि 'चोखा हे'। वितर्क करनेपर भी इसी माता मिली। आशयका उत्तर पाकर आश्चर्य होता था ! स्वस्थातुम धायक माथ अधिकतर नानौता दादोजीक वस्थामे जब कभी कोई तुम्हारी बातको ठीक नहीं पास, सरसावा मेरे पास और तीतरों अपने नाना समझता था या समझनमे कुछ गलती करता था तो मुन्शी होशयारसिंहजीके यहाँ रही हो। जब तुम कुछ तुम बराबर उसे पुन पुनः कहकर या कुछ अते पते टुकड़ा-टेरा लेने लगी, अपने पैरों चलने लगी, बोलने की बात बतलाकर समझाने की चेष्टा किया करती थी बतलाने लगी और गायका दूध भी तुम्हें पचने लगा और जबतक वह यथार्थ बातको ममझ लेनेका तब तुम्हारी धाय रामकौरको विदा कर दिया गया इजहार नही कर देता था तबतक बराबर तुम 'नहीं' और वह अपना वेतन तथा इनाम आदि लेकर शब्दके द्वारा उसकी गलत बातोंका निषेध करती ३० जून मन १९१९ को चली गई। उसके चल जाने रहती थी। परन्तु ज्यों ही उसके मुहसे ठीक बात पर तुम्हारे पालन-पोषण और रक्षाका सब भार निकलती थी तो तुम 'हाँ' शब्दको कुछ ऐसे लहजे में पूज्य दादीजी, बहन (बुश्रा) गुणमाला और चि० लम्बा खींचकर कहती थी, जिममे ऐमा मालूम होता जयवन्तीने अपने ऊपर लिया और मबने बड़ी था कि तुम्हे उस व्यक्तिकी ममझपर अब पुरा तत्परता एव प्रेमके साथ तुम्हारी सेवा की है। मन्तोष हुआ है।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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