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किरण ५ ]
गया था | एक वृद्ध पुरुष श्मशानभूमिमे मुझे यह कह कर सान्त्वना दे रहे थे कि 'जाओ धान रहो क्यारी, अब नहीं तो फिरके बारी । फिर तुम्हारी माता के दुख-दर्द और शोककी तो बात ही क्या है ? उसने तो शोक विकल और वेदनासं विह्वल होकर तुम्हारे नये-नये वस्त्र भी बक्सोंसे निकालकर फेक दिये थे । वे भा तुम्हारे बिना अब उसकी आँखो मे चुभने लगे थे। परन्तु मैंन तुम्हारी पुस्तकों आदिक उस बस्ते का जो काली किरमिचकं बैगरूपमे था और जिसे तुम लेकर पाठशाला जाया करती थी तुम्हारी स्मृतिकं रूपमे वर्षो तक ज्योका त्यों कायम रक्खा है। अब भी वह कुछ जीर्ण-शीर्ण अवस्थानमे मौजूद हैअ बाद उसमे से एक दो लिपि-कापी तथा पुस्तक दूसरोंको दीगई है और सलेटको तो मैं स्वयं अपने मौन वाले दिन काम में लेने लगा हूँ ।
सम्मति विद्या विनोद
नामकरण के बाद जब तुम्हारे जन्मकी तिथि और ताम्बादिको एक नोटबुकमे नोट किया गया था तब उसके नीचे मैंने लिखा था 'शुभम्' । मरणक बाद जब उसी स्थानपर तुम्हारी मृत्युकी तिथी आदि लिखी जाने लगी तब मुझे यह सूझ नहीं पड़ा कि उस दैविक घटनाके नीचे क्या विशेषण लगाऊँ । 'शुभम' तो मैं उसे किसी तरह कह नही सकता था; क्योंकि वेसा कहना मेरे विचारोंके सर्वथा प्रतिकूल था । और 'शुभम् ' विशेषण लगानेको एकदम मन जरूर होता था परन्तु उसके लगानेम मुझे इसलिये सकांच हुआ था कि मैं भावीक विधानको उस समय कुछ समझ नहीं रहा था वह मेरे लिए एक पहेली बन गया था। इससे उसके नीचे कोई भी विशेषण देने मे मैं असमर्थ रहा था।
बेटी विद्यावती,
तुम्हारा जन्म ना० ७ दिसम्बर सन् १९१७ को सरसावामे मेरे छोटे भाई बा० रामप्रसाद सबश्रीवर सिरकी उस पूर्वमुखी हवेली के सूरजमुखी निचले मकान मे हुआ था जो अपनी पुरानी हवेलीकं सामने अभी नई तैयार की गई थी और जिसमें भाई रामप्रसाद के ज्येष्ठ पुत्र चि० ऋषभचन्दके विबाहकी तैयारियाँ
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होरही थीं। जन्मसे कुछ दिन बाद तुम्हारा नाम 'विद्यावती ' रक्खा गया था; परन्तु आम बोल-चालमे तुम्हें 'विद्या' इस लघु नामसे ही पुकारा जाता था ।
तुम्हारी अवस्था अभी कुल सवा तीन महीने की ही थी जब अचानक एक वज्रपात हुआ, तुम्हारे ऊपर विपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा ' दुर्दैवन तुम्हारे सिरपरसे तुम्हारी माताका उठा लिया " वह देवबन्द क उसी मकानमे एक सप्ताह निमोनियाकी बीमारीसे बीमार रहकर १६ मार्च सन १९१८ की इस प्रसार ससारसे कूच कर गई !!! और इस तरह बिधि के कठोर हाथों द्वारा तुम अपने उस स्वाभाविक भोजन - अमृतपानसे वश्चित करदी गई जिसे प्रकृतिने तुम्हारे लिये तुम्हारी माताकं स्तनोमं रक्खा था ' साथ ही मातृ-प्रेम भी सदाके लिये विहीन होगई !!
इस दुर्घटना से इधर तो मै अपने २५ वर्षके तपे तपायें विश्वस्त साथीके वियोग से पीडित | और उधर उसकी धरोहर रूपमं तुम्हारे जीवनकी चिन्ताले श्राकुल || अन्नको तुम्हारे जीवनकी चिन्ता मेरे लिये सर्वोपरि हो उठी। पासके कुछ मज्जनोंन परामर्शरूपमें कहा कि तुम्हारी पालना गायक दूध, बकरीके दूध अथवा डब्बेके दूथसे होसकती है; परन्तु मे आत्माने उसे स्वीकार नहीं किया। एक मित्र बोले'लड़कीको पहाड़पर किसी घायको दिला दिया जायगा, इससे खर्च भी कम पड़ेगा और तुम बहुतसी चिन्ता मुक्त रहोगे । घरपर धाय रखनेसे तो बडा खर्च उठाना पड़ेगा और चिन्ताश्रांस भी बराबर घिरे रहोगे।' मैंने कहा- 'पहाड़ीपर धाय द्वारा बधा की पालना पूर्ण तत्परता के साथ नहीं होता । धायको अपने घर तथा खेत-क्यारके काम भी करने होते है, वह बचेको यों ही छोड़कर अथवा टोकरे या मूढे आदिके नीचे बन्द करके उनमें लगती है और बच्चा रांता विलग्वता पड़ा रहता है। घाय अपने घरपर जैसा-वैसा भोजन करती है, अपने बसेका भा पालती है और इसलिये दूसरेके बचेका समयपर यथेष्ठ भोजन भी नहीं मिल पाता और उसे व्यर्थक अनेक कष्ट उठाने पड़ते है। इसके सिवाय, यह भी