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बतलाया गया है-अमृतचन्द्रसूरिने भी जिसे 'गहन' और 'दुरासद' लिखा है-उसपर जैन वाङ्मयमें कितने ही प्रकरण अथवा 'नयचक्र' जैसे स्वतन्त्र ग्रन्थ भी निर्मित हैं, उनका साथमें अध्ययन अथवा पूर्व-परिचय भी इस ग्रन्थके समुचित अध्ययनमें सहायक है। वास्तवमें यह ग्रन्थ सभी तत्त्वजिज्ञासुओं एवं आत्महितैषियोके लिये उपयोगी है। अभी तक इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है। वीरसेवामन्दिरका विचार उसे प्रस्तुत करनेका है। [क] ग्रन्थकार सिद्धसेन और उनकी दूसरी कृतियां
इस सन्मति' ग्रन्थके कर्ता आचार्य सिद्धसेन है इसमें किसीको भी कोई विवाद नहीं है। अनेक ग्रन्थोंमें ग्रन्थनामके साथ सिद्धसेनका नाम उल्लेखित है और इस ग्रन्थके वाक्य भी सिद्धसेन-नामके साथ उद्धृत मिलते हैं, जैसे जयधवलामे प्राचार्य वीरसेनने ‘णामठवणा दवियं' नामकी छठी गाथाको · उक्तं च सिद्धसेणेण" इस वाक्यक साथ उद्धृत किया है
और पश्चवस्तुमें आचार्य हरिभद्रने 'पायरियसिद्धसेणेण सम्मईप पइट्रिअजसेणं" वाक्यके द्वारा सन्मति'को सिद्धसेनकी कृतिरूपमें निर्दिष्ट किया है, साथ ही 'कालो सहाव णियई' नामकी एक गाथा भी उसकी उद्धृत की है। परन्तु ये सिद्धसेन कौन हैं-किम विशेष परिचयको लिये हुए हैं ? कौनसे सम्प्रदाय अथवा आम्नायसे सम्बन्ध रखते है ?. इनके गुरु कौन थे ? इनकी दुमरी कृतियाँ कौन-सी हैं ? और इनका समय क्या है ? ये सब बातें ऐमी है जो विवादका विषय जरूर हैं। क्योंकि जैनसमाजमे सिद्धसेन नामके अनेक प्राचार्य और प्रखर तार्किक विद्वान भी हो गये हैं और इस ग्रन्थमे ग्रन्थकारने अपना कोई परिचय दिया नहीं. न रचनाकाल ही दिया है-ग्रन्थकी आदिम गाथामे प्रयुक्त हुए 'सिद्धं' पदके द्वारा श्लेपरूपमे अपने नामका मूचनमात्र किया है, इतना ही समझा जा सकता है। कोई प्रशस्ति भी किमी दृमरे विद्वानके द्वारा निर्मित होकर ग्रन्थके अन्तमें लगी हुई नही है। दूमर जिन ग्रन्थोंग्वासकर द्वात्रिशिकाओ तथा न्यायावतार-को इन्हीं आचार्यको कृति समझा जाता और प्रतिपादन किया जाता है उनमें भी कोई परिचय-पद्य तथा प्रशस्ति नहीं है और न कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण अथवा युक्तिवाद ही सामने लाया गया है जिससे उन सब ग्रन्थोका एक ही सिद्धसेन-कृत माना जा सके। और इसलिय अधिकांशमे कल्पनाओ तथा कुछ भ्रान्त धारणाओके आधारपर ही विद्वान लोग उक्त बातोंके निर्णय तथा प्रतिपादनमे प्रवृत्त होते रहे हैं, इमीसे कोई भी ठीक निगा य अभी तक नहीं हो पाया-वे विवादापन्न ही चली जाती हैं और सिद्धसेनके विषयमे जो भी परिचय-लेख लिखे गये है वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं और कितनी ही ग़लतफहमियोको जन्म दे रहे तथा प्रचारमें ला रहे हैं। अतः इस विषयमें गहरे अनुसन्धानके माथ गम्भीर विचारकी जरूरत है और उसीका यहाँपर प्रयत्न किया जाता है। "
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदायोमें सिद्धमेनके नामपर जो ग्रन्थ चढ़े हुए हैं उनमेंसे कितने ही ग्रन्थ तो ऐसे है जो निश्चितरूपमें दूसरे उत्तरवर्ती सिद्धसेनोकी कृतियाँ हैं; जैसे १ जीतकल्पचूर्णि २ तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी टीका ३ प्रवचनमारोद्धारकी वृत्ति ४ एकविशतिस्थानप्रकरण (प्रा.) और ५ सिद्धि यसमुदय (शक्रस्तव) नामका मन्त्रगर्भित गद्यस्तोत्र । कुछ ग्रन्थ से है, जिनका सिद्धसेन-नामके साथ उल्लेख तो मिलता है परन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं, जैसे १ बृहत् पड्दशनसमुनय (जैनग्रन्थावली पृ०६४),२ विषाग्रग्रहशमन१ देखो, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय--"इति विविधभग-गहने सुदुम्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम्"। (५८)
"अत्यन्तनिशितधार दुरासद जिनवरस्य नयचक्रम"। (५६) २ हो सकता है कि यह ग्रन्थ हरिभद्रसूरिका 'पडदर्शनसमुच्चय' ही हो और किसी गलतीसे सूरतके उन
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