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________________ ४०० ] अनेकान्त [वर्ष ६ भवदेव जाता है और वहाँ एक क्षीणकाय स्त्री तपस्या- पात्र विजय पाते हैं, तपके लिए उनमें 'वीर'का स्थायी में रत बैठी थी, उससे भवदेव अपने और भवदत्तके 'उत्साह' पाठकोंको दीख सकता है। इस शृङ्गार विषयमें पूछता है । वह स्त्री सब बताती है कि किस भावना और उत्माह' भावनाका संघर्ष इस सन्धिमें प्रकार वे दोनों ब्राह्मणपुत्र संसार तरङ्गोंको पारकर पर्याप्त सुन्दर रूपमें वर्णित हुआ है और वह कविको दिगम्बर होगए थे। और भवदेवने नागवसुसे विवाह शृङ्गार वीरकाव्य बनानेमें महायक है। किया था. वह भवदेवके यौवनावस्थामें तपत्रत लनेकी भवदेवका जन्म वीतशोकानगरीके राजकुमार प्रशंसा करती है। उसने भवदेवको पहिचान लिया के रूपमें होता है। उसका विवाह एकसी पाँच राजथा, वह उसकी पत्नी थी: कन्याओसे कर दिया जाता है. राजप्रासादोके बाहर तरणतणेवि इंदियदवणु । जानेमे शिवकुमार (भवदेवका इस जन्मका नाम) पर दीसइ पइ मुयवि अण्णुकवणु ॥ देखरग्ब रखी जाती है। एक बार उम नगरीमे सागरपरिगलिए वयसिसव्वहुविजई, चन्द मुनिके आगमसे नगरीमे कालाहल हुआ (भवविसयाहिलास हवि उवसमई । दत्तका जन्म सागरचन्द नामसे पुण्डरीकिनी नगरीमे कच्चेपल्लट्टइ को रयणु, हुआ था और वह मुनि हो गया था)। शिवकुमारने पित्तलइ हेमु विक्कइ कवणु । २ १८ धवलगृहक ऊपरसे मुनिको देखा और उसे जाति 'तरूणावस्थामें इन्द्रियांका दमन करने वाला स्मरण हो आया । वह मूछित होगया और तपत्रत तुम्हारे अतिरिक्त और कौन है, अवस्थाके परिगलित लेना चाहता है. राजा उसे उस पथसे दूर करना होनेपर मभी यती हैं जब कि विषयाभिलाषाएँ उप- चाहता है। राजा आर राजकुमारके प्रमङ्गकी कुछ शमित हो जाती है काँचको रबसे कौन बदलंगा और पंक्तियो इस प्रकार है. राजा उसे शृङ्गार और राजपीतलसे सोनेको कौन बेचेगा।' नागवम् उममे कहती वैभवर्म रत रहनेके लिए कहता है किन्तु कुमारका कि उसके जानेपर उसके एकत्रित धनस उसने वह मन वैराग्यके लिए दृढ़ हैचैत्य बनवाया है। उमका धर्मढ़ताको सुनकर भवदेव श्राहासइ चक्केसरु तणुरुहु, लज्जित होता है, मुनिके पास जाकर मब वृत्तान्त कवणु कालु पावज्जते किर तुहु । सुनाकर सविशेप दीक्षा लेता है। भवदत्तके माथ तप अखयणिहाणु रयणरिदिल्ली, करता हुआ वह और भवदन्त अनशन करके पण्डित रायलच्छि तुहु भुजहि भल्ली । मरणसे देह त्याग कर तृतीय स्वगका जान है। भगइ कुमार ताय जय सुदरु, विषयोकी ओर झुकनेकी मनुष्यकी शाश्वत दुर्व ता कहि चक्कवट्टि हरि हलहर । लताका सुन्दर विश्लेषण करन हुए कविने भवदेवको समलकाल रगवणव वर इत्ती, उसपर विजय पाते हुए चित्रित किया है। शृङ्गारके वसमई वेसव केण ण भुत्ती । १.८ श्रालम्बन विभाव यहाँ भवदेव और नागवसु । फिर राजा कहता है कि रागद्वेषका त्याग करनेपर मंचारीभावांका सुन्दर चित्रण हुआ है. पुगनी तपतकी क्या आवश्यकता है घरवास करते हुए ही स्मृतियाँ ग्रामकी मन्निकटता भवदेवके हृदयमे विपय- नियम व्रताको धारण करना चाहिये । कुमार पिताके सुखका जागृत करत हैं अतः उदीपन कहे जा सकन वचनको मानकर मन वचन. कायसे नवविध ब्रह्मचर्य हैं. शृङ्गारकं पूर्ण चित्रणकं लिए कथाकी परम्पगके व्रत धारण करनेका व्रत लेता है। तरुणियोंके पास कारण कवि विवश था और परिस्थितियांके कारण हानेपर भी वह उम औरमे उदास रहता है। परगृहसे नायक नायिका दानी तपत्रन लेते है। दुर्बलताओम भिक्षा लाता है। बहुत वर्ष तप करनेके पश्चात ममय संघर्ष ही वाररस' का यहाँ प्रतीक है. उनपर कथाके आनेपर वह विरक्त होगया और देह त्यागकर
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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