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________________ जैन कालोनी और मेरा विचार-पत्र -XXX श्राजकल जैन - जीवनका दिनपर दिन हास होता जा रहा है, जैनत्व प्रायः देखने को नहीं मिलता-कहीं कहीं और कभी कभी किसी अंधेरे कोने में जुगनूके प्रकाशकी तरह उसकी कुछ फलक मी दीख पड़ती है। जैनजीवन और जैनजीवन में कोई स्पष्ट अन्तर नजर नही आता। जिन राग-द्वेप, काम-क्रोध, छल-कपट झूठ - फरेब, धोग्वा - जालसाजी, चोरी-सीनाजोरी, अतितृष्णा, विलासता नुमाइशीभाव और विषय तथा परिग्रहलोलुपता आदि दोषोंसे अजैन पीडित हैं उन्हीं से जैन भी सनाये जा रहे हैं। धर्मके नामपर किये जानेवाले क्रियाकाण्ड में कोई प्राण मालूम नहीं होता अधिकाश जाब्तापूरी, लोकदिखावा अथवा दम्भका ही सर्वत्र साम्राज्य जान पड़ता है। मूलमें विवेकके न रहने से धर्मकी सारी इमारत डांवाडोल हो रही है । जब धार्मिक ही न रहे तब धर्म किसके आधारपर रद्द सकता है ? स्वामी समन्तभद्रने कहा भी है कि 'न धर्मो धार्मिकविना ' । अतः धर्मकी स्थिरता और उसके लोकहित जैसे शुभ परिणामोंके लिये सच्चे धार्मिकों की उत्पत्ति और स्थितिकी ओर सविशेषरूप से ध्यान दिया ही जाना चाहिये, इसमें किसीको भी विवाद के लिये स्थान नहीं है । परन्तु आज दशा उलटी है - इस ओर प्राय: किसोकाभी ध्यान नहीं है। प्रत्युत इसके देशम जैसी कुछ घटनाएं घट रही हैं और उसका वातावरण जैसा कुछ क्षुब्ध और दूषित हो रहा है उससे धर्म के प्रति लोगोंकी श्रश्रद्धा बढ़ती जा रही है, कितने ही धार्मिक संस्कारोंसे शून्य जनमानस उसकी बगावत पर तुले हुए हैं और बहुतों की स्वार्थपूर्ण भावनाएं एवं अविवेकपूर्ण स्वच्छन्दप्रवृत्तियां उसे तहस-नहस करनेके लिये उतारू हैं; और इस तरह वे अपने तथा उसे देशके पतन एवं विनाश का मार्ग आप ही साफ कर रहे हैं। यह सब देखकर भविष्य की भयङ्करताका विचार करते हुए शरीरपर रोंगटे खड़े होते हैं और समझ में नहीं आता कि तब धर्म और धर्मायतनोंका क्या बनेगा। और उनके अभाव में मानव-जीवन कहां तक मानवजीवन रह सकेगा !! दूषित शिक्षा-प्रणाली के शिकार बने हुए संस्कारविहीन जैनयुवकों की प्रवृत्तियां भी आपत्तिके योग्य हो चली हैं, वे भो प्रवाहमे बहने लगे हैं, धर्म और धर्मायतनोंपर से उनकी श्रद्धा उठती जाती है, वे अपने लिये उनकी जरूरत हो नहीं समझते, आदर्शकी थोथी बातों और थोथे क्रियाकाण्डोंसे वे ऊब चुके हैं, उनके सामने देशकालानुसार जैन-जीवनका कोई जीवित आदर्श नहीं है, और इसलिये वे इधर उधर भटकते हुजिधर भी कुछ आकर्षण पाते हैं उधरके ही हो रहते हैं । जैनधर्म और समाज के भविष्यको दृष्टिसे ऐसे नवयुवको का स्थितिकरण बहुत ही आवश्यक है और वह तभी हो सकता है जब उनके सामने हरसमय जैन- जीवनका जीवित उदाहरण रहे । इसके लिये एक ऐसी जैनकालोनी - जैनबस्तीके बसाने की बड़ी जरूरत है जहां जैन जीवनके जीते जागते उदाहरण मौजूद हों - चाहे वे गृहस्थ अथवा साधु किसी भी वर्ग के प्राणियोंके क्यों न हो; जहां पर सवत्र मूर्तिमान जैनजीवन नजर आए और उससे देखनेवालोंको जैनजीवनकी सजीव प्रेरणा मिले; जहांका वातावरण शुद्ध - शांत प्रसन्न और जैन जीवन के अनुकूल अथवा उसमें सब प्रकार के सहायक हो; जहां प्राय: ऐसे ही सज्जनोंका अधिवास हो जो अपने जीवनको जैन जीवन के रूपमें ढालने के लिये उत्सुक हों; जहां पर अधिवासियोंकी प्रायः सभी जरूरतों को पूरा करनेका समुचित प्रबन्ध हो और जीवनको ऊंचा उठान के यथासाध्य सभी साधन जुटाये गये हों; जहां
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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