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अनेकान्त
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वर्ष
जब हम देखते हैं कि प्रन्थभरमें अन्यत्र कहीं भी एक मेरे विचारोंसे सहमत न हों तो कृपया उन आधारों के दो लक्षण नहीं कहे गये हैं। आगम, तपोभृत, तथा युक्तिप्रमाणोंसे अवगत कीजिये जिनसे वे मूल त्रिमूढों और अष्टङ्गों और स्मयादि सबके लक्षण प्रन्थके अङ्गसिद्ध हो सकें। इस कृपा और कष्टके लिये एक एक पद्यमें ही दे दिये गये हैं। हो सकता है कि मैं आपका बहुत आभारी हूंगा। आशा है आप मेरी किसीने उत्सन्नदोषकी टिप्पणीके तौर पर इस पद्यको प्रस्तावनाके उक्त पृष्ठोंको देखकर मुझे शीघ्र ही उत्तर लिख रक्खा हो, और वह प्रभाचन्द्रसे पहले ही मूल देने की कृपा करेंगे। प्रतियों में प्रविष्ट हो गया हो। यदि ऐसा सम्भव नहीं है, और आपकी रायमें यह मूलरूपमें समन्तभदको इसका मैने तत्काल ही उन्हें यह उत्तर लिख भेजा कृति है, तो कृपया इसकी स्थिति जो सन्देह उत्पन्न था- "रत्नकरण्डश्रावकाचारको प्रस्तावनामें आपने कर रही है, उसे स्पष्ट कीजिये और सन्देहका निरसन जिन पद्यांको संदिग्ध बतलाया है उनका ध्यान मुझे कीजिये। इसलिये में आपका आभारी हंगा। और था ही। आपके आदेशानुमार मैन वह पूरा प्रकरण यदि आप भी मेरी ही तरह अब इसकी स्थितिको फिरसे देख लिया है। मैं आपसे इस बातपर पूर्णत: संदिग्ध समझते हैं और आपको भी इसे मलग्रन्थका सहमत हूं कि उन पद्योंकी रचना बहुत शिथिल प्रयत्नसे वाक्य कहने में संकोच होता है तो वैसाम्प लिखिये। हुई है, अतएव प्राप्तमीमांसादि प्रन्थोंके कतो द्वारा उत्तर जितना भी शीघबन सके देनेकी कपा करें। उनके रचे जानको बात बिलकुल नहीं जंचती। किन्तु शीघ्र निर्णयके लिये उसकी बड़ी जरूरत है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमें वे मूल लेखककी न होकर
-भवदीय जुगलकिशोर प्रक्षिप्त हैं इसके कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं, विशेषतः श्री मुख्तारजीने यहां उक्त पद्यके सम्बन्धमें एक जब कि प्राचीनतम टीकाकारने उन्हें स्वीकार किया है, बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्रको उठाया था जिसका उक्त और कोई प्राचीन प्रतियां ऐसी नहीं पाई जाती जिनमें प्रन्थ-कर्तृत्वके विषयसे बहुत घनिष्ट सम्बन्ध है। वे पद्य सम्मिलित न हों। केवल रत्नकरण्डश्रावकाकिन्तु इसपर विद्वानोंके क्या मत आये, उनपर से चारको दृष्टि में रखते हुये वे पद्य इतने नहीं ग्वटकते मुख्तार साहबका क्या निर्णय हश्रा, और वह अभी जितने आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों के कर्तृत्वको ध्यानमें तक क्यों प्रकट नहीं किया गया, यह जिज्ञासा इस रखते हुए खटकते हैं। क्योंकि रत्नकरण्डकी रचनामें विषयके रुचियोंको स्वभावत: उत्पन्न होती है। मेरे वह तार्किकता दृष्टिगोचर नहीं होती। अतएव इम पास तो उक्त विषयसे कुछ स्पशे रखता हा मख्तार विचार-विमर्शका परिणाम भी वही निकलता है कि साहबका एक प्रश्न उक्त पत्र लिखे जानेके कोई एक वर्ष रत्नकरण्डश्रावकाचार प्राप्तमीमांसाके कर्ताकी कृति पश्चात यह पाया था कि-'रत्नकरण्डश्रावकाचारको नह। ६।" प्रस्तावनामें पृष्ठ ३२ से ४१ तक मैंने जिन सात पद्यों- इस प्रश्नोत्तरको भी कोई डेढ दो वर्ष हो गये को संदिग्ध करार दिया है उनके सम्बन्धमें आपकी किन्तु अभी तक तत्सम्बन्धी कोई मुग्तारजीका निर्णय क्या राय है? क्या मेरे हेतुओंको ध्यानमें रखते हुए मुझे देखनेको सुनने नहीं मिला। तो भी इन सब पत्रोंको पाप भी उन्हें संदिग्ध करार देते हैं, अथवा आपकी यहां प्रस्तुत करना वर्तमान विपयके निर्णयार्थ अत्यदृष्टिमें वे संदिग्ध न होकर मूल ग्रन्थके ही अङ्ग हैं? न्त आवश्यक था। ताकि यह दिशा भी पाठकोंकी यह बात मैं आपसे जानना चाहता हूं। यदि आप दृष्टिसे ओमज न रहे।