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अनेकान्त
[ वर्ष
के अधिवासी अपनेको एक ही कुटुम्बका व्यक्ति सममें तथा आकौक रूप में प्रचुर साहित्यके वितरण-द्वारा एक ही पिताको सन्तानके रूपमें अनुभव करें, और जहां अपने धर्मका प्रचार कर रहे हैं वहां मांसाहारको एक दूसोके दुख-सु वमें बराबर साथी रहकर पूर्णरूप भी काफी प्रोत्तेजन दे रहे हैं, जिससे आश्चय नहीं से सेवाभावको अपनाएँ तथा किसीको भी उसके कष्टमें जो निकट भविष्यमें सारा विश्व मांसाहारी हो जायः यह महसूस न होने देवें कि वह वहांपर अकेला है। और इस लिये उनके हृदयमें यह चिन्ता उत्पन्न हुई
समय-समयपर बहुतसे सज्जनोंके हृदय में धार्मिक कि यदि जैनी समयपर सावधान न हए तो असंभव जीवनको अपनानेकी तरंगें उठा करती हैं और कितने नहीं कि भगवान महावीरकी निगमिष-भोजनादि. हो सद्गृहस्थ अपनी गृहस्थीके कर्तव्योंको बहुत कुछ सम्बन्धी सुन्दर देशनाओंपर पानी फिर जाय और पूरा करलेने के बाद यह चाहा करते हैं कि उनका शेष वह एकमात्र पोथी पत्रों की ही बात रह जाय। इसी जीवन रिटायर्डरूप में किसी ऐसे स्थानपर और ऐसे चिन्ताने जैनकालोनीके विचारको उनके मानसमें सत्सङ्ग में व्यतीत हो जिससे ठीक ठीक धर्मसाधन और जन्म दिया और जिसे उन्होंने जनवरी सन १६४५ के लोक-सेवा दोनों ही कार्य बन सकें। परन्तु जब वे पत्र में मुझपर प्रकट किया। उस पत्रके उत्तरमें २७ समाजमें उसका कोई समुचित साधन नहीं पाते और जनवरी माघ पूढी १५ शनिवार सन १६४५को जो पत्र आस पासका वातावरण उनके विचारोंके अनुकूल नहीं देहलीसे उन्हें मैने लिया था वह अनेक दृष्टियोंसे होता तब वे यों ही अपना मन मसोसकर रह जाते हैं अनेकान्त-पाठकों के जानने योग्य है। बहुत सम्भव समर्थ होते हा भी बाह्य परिस्थितियोंके वश कुछ भी है कि बाबू छोटेलाल जीको लक्ष्यकरके लिया गया यह कर नहीं पाते, और इस तरह उनका शेप जीवन इधर पत्र दूसरे हृदयोंको भी अपील करे और उनमें से कोई उधरके धन्धों में फंसे रहकर व्यर्थ ही चला जाता है। माईका लाल ऐसा निकल आवे जो एक उत्तम जैन
और यह ठीक ही है, बीजमें अंकुरित होने और कालोनीकी योजना एवं व्यवस्थाके लिये अपना सब अच्छा फलदार वृक्ष बननेकी शक्तिके होते हुए भी उसे कुछ अपर्ण कर दे, और इस तरह वीरशासनको यदि समयपर मिट्टी पानी और हवा आदिका समुचित जड़ोंको युगयुगान्तरके लिये स्थिर करता हुआ अपना निमित्त नहीं मिलता तो उसमें अंकुर नहीं फूटता एक अमर स्मारक कायम कर जाय। इमी सदुद्दे और वह यों ही जीर्ण-शीण होकर नकारा हो जाता श्यको लेकर आज उक्त पत्र नीचे प्रकाशित किया है। ऐसी हालतमें समाजकी शक्तियोंको सफल बनाने जाना है। यह पत्र एक बड़े पत्रका मध्यमांश है, जो अथवा उनसे यथेट काम लेनेके लिये संयोगोंको मौनके दिन लिखा गया था, उस समय जो विचार मिलाने और निमित्तोंको जोड़ने की बड़ी जरूरत रहती धाग-प्रवाहरूपसे आते गये उन्हींको इस पत्र में अङ्कित है। इस दृष्टिसे भी जैनकालोनीकी स्थापना समाजके किया गया है और उन्हें अङ्कित करते समय ऐसा लिये बहुत लाभदायक है और वह बहुतोंको सन्मार्ग- मालूम होता था मानों कोई दिव्य-शक्ति मुझसे वह पर लगाने अथवा उनकी जीवनधाराको समुचितरूपसे सब कुछ लिखा रही है। मैं मममताहूँ इसमें जैन बदलने में सहायक हो सकती है।
धर्म, समाज और लोकका भागे हित मन्निहित है। श्राज दो वर्ष हुए जब बाब छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ना मद्रास-प्रान्तस्थ श्राग्यवरमके सेनिटोरि- जनकालोनी-विषयक पत्रयममें अपनी चिकित्सा करा रहे थे। उम समय "जैन कालोनी आदि सम्बन्धी जो विचार आपने वहांके वातावरण और ईसाई मजनोंके प्रेमालाप प्रस्तुत किये हैं और बाबू अजितप्रमाद जी भी जिनके एवं सेवाकार्योसे वे बहुत ही प्रभावित हुए थे। साथ लिये प्रेरणा कर रहे हैं वे सब ठीक हैं। जैनियों में ही यह मालूम करके कि ईसाईलीगामी सेवा सम्धाओं सेवाभावकी स्पिरिटको प्रोत्तेजन देने और एकवर्ग