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अनेकान्त
[ वर्ष ९
उससे पृथक् होजावे तब जल स्वयं निर्मल होजाता हैं उनसे क्षयोपशमज्ञानी वस्तुस्वरूपके जाननेके है। तदुक्तं-पंकापाये जलम्य निर्मलतावत ।' निर्म- अर्थ आगम-रचना करते हैं। लताके लिये हमें पङ्कको पृथक् करनेकी आवश्यकता आज बहुतसे भाई जैनोंके नामसे यह समझते है। अथवा जैसे जलका स्वभाव शीत है। अग्निके हैं जो वह एक जाति-विशेष है । यह समझना कहाँ सम्बन्धसे जलमें उष्णता पर्याय होजाती है उस समय तक तथ्य है, पाठकगण जाने। वास्तवमे जिसने जल, देखा जावे तो, उष्ण ही है। यदि कोई मनुष्य आत्माके विभाव-भावोंपर विजय पा ली वही जैन । जलको शीत-स्वभाव मानकर पान कर लेवे तब वह यदि नामका जैनी है और उसने मोहादि कलकोंको नियमसे दाहभावको प्राप्त होजावेगा । अत: जलको नहीं जीता तब वह नाम 'नामका नैनसुख आँखोंका शीत करनेके वास्ते आवश्यकता इस बातकी है जो अन्धा'की तरह है। अत: मोह-विकल्पोंको छोडो और उसको किसी बतनमें डालकर उसकी उष्णता पृथक् वास्तविक अहिंसक बनो। कर देना चाहिये । इसी प्रकार आत्मामें मोहोदयसे वास्तवमे तो बात यह है कि पदार्थ अनिर्वचनीय रागादि परिणाम होते हैं वे विकृतभाव है। इनसे है-कोई कह नही सकता। श्राप जब मिमी माने श्रात्मा नाना प्रकारके क्लेशोंका पात्र रहता है। उनके हो तब कहते होमिमरी मीठी होती है-जिम पात्रमे न होनेका यही उपाय है जो वर्तमानमें रागादिक हों रक्खी है वह नहीं कहता; क्योंकि जड है । ज्ञान ही उनमे उपादेयताका भाव त्यागे, यही आगामी न होने- चेतन है वह जानता है मिसरी मीठी है, परन्तु यह में मख्य उपाय है। जिनके यह अभ्यास होजाता है भी कथन नही बनता; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि उनकी परिणति सन्तोषमयी होजाती है। उनका जीवन ज्ञान ज्ञेयमे नही जाता और ज्ञेय ज्ञान नहीं जाता। शान्तिमय बीतता है, उनके एक बार ही पर पदार्थोसे फिर जब मिमरी ज्ञानमे गई नहीं तब मिसरी मीठी निजत्व बुद्धि मिट जाती है । और जब परमे निजत्व- होती है, यह कैसे शब्द कहा जासकता है ? अथवा की कल्पना मिट जाती है तब सुतरां राग-द्वेष नही जब ज्ञानगे ही पदार्थ नहीं पाता तब शब्दसे उसका होते। जहाँ श्रात्मामे राग-द्वेष नहीं होते वहीं पूर्ण व्यवहार करना कहाँ तक न्यायसङ्गत है। इससे यह अहिंसाका उदय होता है। अहिंसा ही मोक्षमार्ग है। तात्पर्य निकला-मोह-परिणामोंसे यह व्यवहार है
मात्मा फिर आगामी अनन्त काल, जिस रूप अर्थात जब तक मोह है तब तक ज्ञानमे यह कल्पना सिस गया, उसी रूप रहता है। जिन भगवानने है। मोहके अभावसे यह सर्व कल्पना विलीन हो यही अहिंसाका तत्त्व बताया है-अर्थात जो आत्माएं जाती है-यह असङ्गत नहीं। जब तक प्राणीक मोह राग-द्वेष-मोहके अभावमे मुक्त होचुकी है उन्हींका हे तब तक ही यह कल्पना है जो ये मेरी माता है नाम जिन है । वह कौन है ? जिसके यह भाव होगये और मैं इसका पुत्र हैं। और ये मेरी भार्या * वही जिन है। उसने जो कुछ पदार्थका स्वरूप दर्शाया इमका पति हूँ। मोहके अभावमे यह सर्व व्यवहार उस अर्थक प्रतिपादक जो शब्द है उसे जिनागम विलीन होजाते है-जब यह आत्मा मोहके फादसे कहते है। परमार्थसे देखा जाय तो, जो आत्मा पूण रहता है तब नाना कल्पनाओंकी सृष्टि करता है, किसी अहिंसक होजाती है उसके अभिप्रायमे न तो परके को हेय और किसीको उपादेय मानकर अपनी प्रवृत्ति उपकारके भाव रहते है और न अनुपकारके भाव बनाकर इतस्ततः भ्रमण करता है। मोहके अभावमे रहते हैं। अत: न उनके द्वारा किसीके हितकी चेष्टा आपसे आप शान्त होजाता है। विशेष क्या लिखं, होती है और न अहितकी चेष्टा होती है। किन्तु जो पूर्वो- इसका मर्म वे ही जाने जो निर्मोही हैं, अथवा वे ही पार्जित कर्म है वह उदयमे आकर अपना रस देता है। क्या जाने, उन्हे विकल्प ही नहीं। उस काल में उनके शरीरसे जो शब्दवर्गणा निकलती