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________________ अहिंसा-तत्व (लेखक-दुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य) अहिंसा-तत्व ही एक इतना व्यापक है जो इसके गुणका घात है और इस लिये वहाँ भी हिंसा ही है। उदरमें सर्व धर्म आजाते हैं, जैसे हिंसा पापमें सर्व अत: जहाँपर आत्माकी परिणति कषायोंसे मलीन पाप गर्भित होजाते है । सर्वसे तात्पर्य चोरी, मिथ्या, नहीं होती वहींपर आत्माका अहिंसा-परिणाम अब्रह्म और परिग्रहसे है । क्रोध, मान, माया, लोभ विकासरूप होता है उसीका नाम यथाख्यात चारित्र ये सर्व प्रात्म-गुणके पातक है अतः ये सर्व पाप ही हैं। है। जहाँपर रागादि परिणामोंका अंश भी नहीं इन्हीं कषायोंके द्वारा आत्मा पापोंमे प्रवृत्ति करता है रहता उसी तत्त्वको आचार्योंने अहिंसा कहा हैतथा जिनको लोकमें पुण्य कहते हैं वह भी कषायों के 'अहिंसा परमो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः।' मद्भावमें होते हैं । कषाय आत्माके गुणोंका घातक है श्रीअमृतचन्द्रस्वामीने उमका लक्षण यों कहा है:अतः जहाँ पुण्य होता है वहाँ भी आत्माके चारित्र- अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ का है, भले ही उसके द्वारा प्रयुक्त हुए प्रतिपदके -पुरुषार्थसिद्धयुपाय साथमे 'स्यात' शब्द लगा हुआ न हो, यही उसके पद-प्रयोगकी सामर्थ्य है।' 'निश्चयकर जहाँपर रागादिक परिणामोंकी (इसके सिवाय, 'सदेव सवैको नेच्छेत स्वरूपादि उत्पत्ति नहीं होती वहीं अहिंसाकी उत्पत्ति है और जहाँ रादिक परिणामोंकी उत्पत्ति होती है वहीं पर चतुष्टयात्' इसप्रकारके वाक्यमे स्यात पदका प्रयोग हिंसा होती है, ऐसा जिनागमका संक्षेपस कथन है ऐसा नहीं मानना चाहिए; क्योंकि 'स्वरूपादि जानना ।' यहाँपर रागादिकोंसे तात्पर्य भात्माकी चतुष्टयात्' इस वचनसे स्यात्कारके अर्थकी उसी प्रकार प्रतिपत्ति होती है जिसप्रकार कि 'कथश्चित्ते सदेवेष्ट' परिणतिविशेषस है-परपदार्थम प्रीतिरूप परिणामइस वाक्यम 'कश्चित' पदसे स्यात्पदका प्रयोग का होना राग तथा अप्रीतिरूप परिणामका नाम द्वेष, और तत्त्वकी अतिपत्तिरूप परिणामका होना मोह जाना जाता है । इसीप्रकार लोकमे 'घट आनय' अर्थात् राग, द्वेष, मोह ये तीनो आत्माके विकार(घड़ा लाओ) इत्यादि वाक्योंमे जो स्यात् शब्दका भाव हैं। ये जहाँपर होते हैं वहीं प्रात्मा कलि (पाप)का अप्रयोग है वह उसी प्रतिज्ञाशयको लेकर सिद्ध है।) मंचय करता है, दुखी होता है, नाना प्रकार पापादि ___ 'इसतरह हे जिन-नाग!-जिनोंमे श्रेष्ठ श्रीवीर कार्यों में प्रवृत्ति करता है। कभी मन्द राग हुचा तब भगवन् !-यापकी (अनेकान्त) दृष्टि दूसरोंके परोपकारादि कार्यों में व्यग्र रहता है, तीव्र राग-द्वेष सर्वथा एकान्तवादियोंके-द्वारा अप्रधृष्या हैअबाधितविषया है और साथ ही परधर्षिणी है हुआ तब विषयोंमे प्रवृत्ति करता है या हिंसादि पापों में मन होजाता है। कहीं भी इसे शान्ति नहीं मिलती। दूसरे भावैकान्तादिवादियोंकी दृष्टियोंकी धर्षणा यह सर्व अनुभूत विषय है। और जब रागादि करनेवाली है-उनके सर्वथा एकान्तरूपसे मान्य परिणाम नहीं होते तब शान्तिसे अपना जो ज्ञातासिद्धान्तोंको बाधा पहुँचानेवाली है।' दृष्टा स्वरूप है उसीमें लीन रहता है, जैसे जलमें पर के सम्बन्धसे मलिनता रहती है। यदि पङ्कका संबन्ध
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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